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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

आज की राजनीति पतन के दौर से गुजर रही है। राष्ट्रवाद, गांधीवाद, समाजवाद अथवा अम्बेडकरवाद ट्रेड मार्क बनकर रह गये हैं। न तो गांधीवादियों में गांधी की नैतिकता है और न ही समाजवादियों में परिवार के अतिरिक्त समाज के प्रति संवेदना है। अम्बेडकरवाद भी सत्ता पाने का अचूक हथियार बनकर रह गया है। वहीं राष्ट्रवाद भी सत्ता के गलियारों में जाकर दम तोड़ रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण है कि यूपीए सरकार के खिलाफ हथियार भांजने वाली सपा, राजद और बसपा अपने सिद्धांतों को ताक में रखकर सरकार को बचाते हैं और बेशर्मी से अपनी सफाई भी देते हैं। इस राजनीति के गिरगिटी रंग से जनता आहत हो चुकी है लेकिन उसके पास विकल्पहीनता है। आखिर वह करे तो क्या करे। उसने लगभग सभी को आजमा लिया है।

जैसे पेशेवर वैश्या होती है। पेशेवर गवैये और शिल्पकार होते हैं। वैसे ही कभी समाजसेवा का पर्याय राजनीति विशुद्ध पेशा बन गया है। इस पेशेवर राजनीति में कई राजनेताओं के पूरे परिवार उतर आये हैं। आखिर यह धंधा चोखा है सम्मान के साथ माल भी। इस पेशेवर राजनीति से देश के लोकतंत्र का बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है। इस बारे में जनांदोलन होना चाहिए और पेशेवर राजनेताओं को धता बताकर विशुद्ध समाज और देश के हित में काम करने वालों को ही चुनाव में जिताना चाहिए। मंहगे चुनाव के कारण राजनीति में अधिक गंदगी आई है। अब सांसद का चुनाव दसियों करोड़ और विधायक का करोड़ का हो गया है। ग्राम प्रधान और सभासद के चुनाव में भी लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। जब इतना मंहगा चुनाव होगा तो कौन ईमानदार आदमी चुनावी राजनीति में उतरेगा। मंहगे चुनाव से सही आदमी राजनीति में आने से घबराता है। इसलिए राजनीति में धनकुबेरों और माफियाओं का कब्जा हो गया है। यही कारण है कि राजनीति में सिद्धांत नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। चुनाव जीतना ही सिद्धांत और सत्ता पाना ही आज की राजनीति का ध्येय हो गया है।

वर्तमान राजनीति कारपोरेट सेक्टर में बदल गई है। इसमें पूंजीपति, गुंडो और राजनेताओं की जुगलबंदी काम करती है। चुनाव में पैसा पूंजीपति खर्च करते हैं। गुंडों वोटरों को डराते धमकाते हैं और नेताओं सत्ता में बैठकर इनका ख्याल रखते हैं। सिद्धांत अच्छे ध्येय और मंजिल के लिए होते हैं परंतु येन-केन-प्रकारेन सत्ता पाने के लिए नीति और सिद्धांतों की बलि देना आम बात हो गई है।

हमारे देश में राजनीति को कभी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डा. अम्बेडकर, डा. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे त्यागी लोग राजनीति करते थे तो लोगों का सिर श्रद्धा से उनके त्याग और बलिदान को नमन करता था। लेकिन अब तो माने हुए गुंडे, व्यभिचारी और भ्रष्ट संसद और विधानमंडलों में बैठकर इसकी गरिमा को ध्वस्त कर रहे हैं। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो अच्छे लोगों को राजनीति में आना होगा बरना यह लोग देश को गर्त में धकेल देंगे।

गंदी राजनीति के लिए केवल नेताओं को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए जनता भी बराबर की दोषी है। गलत लोगों को जनता ही तो चुनकर भेजती है। वह कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर वोट देती है। उसे ईमानदार और सादगीपूर्ण प्रतिनिधि पसंद ही नहीं है। उसे धनवान और vilaasi जीवन शैली का प्रतिनिधि चाहिए। यही कारण है कि देश की संसद में आधे से अधिक अरबपति और करोड़पति सांसद हैं।

जनता ही भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाये

मेडीकल काउन्सिल ऑफ इन्डिया के चेयरमैन डा. केतन देसाई के घर से बरामद अरबों रुपयों की नकदी और जेबरात से लगता है कि वह कितनी बेरहमी के साथ हराम की कमाई को दोनों हाथों से बटोर रहे थे। मध्यप्रदेश में ही एक आईएएस दम्पत्ति भी करोड़ों की काली कमाई के साथ पकड़े गये। कभी किसी डायमंड किंग के यहां अकूत धन बरामद होता है तो किसी नेता के यहां तो इतना अकूत पैदा मिलता है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। आश्चर्य इस बात का भी है कि मामूली आय बढ़ने पर आयकर विभाग हरकत में आ जाता है। गुप्तचर विभाग भी रातोंरात अमीर बने हुए लोगों पर नजर रखता है। और तो और यार-दोस्त और रिश्तेदार भी ऐसे लोगों पर कड़ी नजर रखते हैं। लेकिन लगता है कि इस देश को जंग लग गई है। लोकशाही सामंतशाही में बदलती जा रही है। इन लोगों पर न तो सरकारी अंकुश है और न ही इन्हें जनाक्रोश से रूबरू होना पड़ता है। चंद लोग पूरे देश को बर्वाद करने में लगे हुए हैं। अपने को लोकप्रिय कहने वाली सरकारें इनकी बंधक बन चुकी हैं। इसीलिए आजाद हिंदुस्तान में किसी भी बड़े आदमी यानी नेता, अधिकारी या व्यापारी को कड़ा दंड नहीं मिला है। हां भ्रष्टाचार के नाम पर दंड अगर मिलता है तो किसी बाबू, चपरासी जैसे मामूली कर्मचारियों को। व्यापारियों में भी छोटे-मोटे ही हाथ लग पाते हैं। नेता की सम्पत्ति की तरफ न तो सरकार आंख उठाकर देखती है और न ही जनता ही। सवाल इस बात का है कि क्या देश में डा. देसाई जैसे कितने मगरमच्छ हैं। यह लोग बड़े आराम से धन बटोरते रहे हैं। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। क्या देश ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों, नेताओं और व्यापारियों की तिकड़ी पर कथक करता रहेगा या कालाबाजारियों और दलालों की बीन की धुन पर नाचता रहेगा। वस्तुतः आजादी के बाद भ्रष्टाचार अथवा घूसखोरी को बहुत बड़ा पाप माना जाता था। लोग ईमानदारी से अपनी नौकरी करते थे। लेकिन समय बदल नैतिक मूल्यों के स्थान पर भौतिकता प्रभावी हो गई। राजनीति पूरी की पूरी भ्रष्टाचार की कीचड़ में सन गई। व्यापार कालाबाजार अथवा मुनाफाखोरी का पर्याय बन गया। इन सभी का एकमात्र ध्येय किसी भी तरह से जनता के धन को लूटना और समाज में संपन्नतम व्यक्ति के रूप से अपने को स्थापित करना तथा विलासिता के सागर में गोते लगाना रहा। क्या इन भ्रष्टों का खेल ऐसे ही चलता रहेगा ? यह इस महान देश की त्रासदी है कि एक और करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं होती। दवा-दारू के अभाव में लाखों लोग असमय ही मौत के शिकार हो जाते हैं। सरकारी गोदामों में भ्लले ही अनाज सड़ता रहे। चूहो का निवाला बनता रहे लेकिन उस पर गरीबों का कोई हक नहीं है। भ्रष्टाचार में अकेले डा. देसाई ही दोषी नहीं हैं अपितु हर अधिकार-संपन्न अधिकारी है। ठेकेदार हैं। इंजीनियर हैं। चिकित्सक हैं और शिक्षा की दुकान चलाने वाले ठेकेदार हैं। इनकी काली कमाई दिन-दूरी, रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है। वैसे सरकार के वश की बात नहीं है कि वह भ्रष्टाचार को रोके क्योंकि वह खुद भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। अगर वह भ्रष्टाचार को मिटाना चाहती है तो उसे एक ऐसा तंत्र विकसित करना पड़ेगा कि हर नेता, अधिकारी और व्यापारी की वार्षिक आय की सख्ती से जांच हो। बेनामी सम्पत्तियों को उजागर करने के लिए गुप्तचर विभाग मुस्तैदी से काम करे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जनता को ही ऐसे धनपशुओं को सबक सिखाने के लिए सड़कों पर उतरेगी। उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित करेगी और उनकी हराम की कमाई को लूटेगी। तब क्या सरकार जनाक्रोश का सामना कर सकेगी। जब भूखे और वंचितों की भीड़ राजमार्गों पर उतरेगी तो देश का इतिहास बदल देगी।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

सेना से ही ईमानदारी की अपेक्षा क्यों

अभी सकुना मामले में सारे देश में भूचाल मचा हुआ है जिसके तहत ले-जनरल अवधेश प्रसाद सहित कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों पर कोर्ट मार्शल के आदेश हुए हैं। इससे पहले तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने इस आरोपी सैन्य अधिकारियों के विरुद्ध प्रशासनिक कार्रवाई की सिफारिश की थी। लेकिन रक्षा मंत्री के हस्तक्षेप के बाद उन्हें आरोपियों के खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई करने का आदेश दिया। इसी तरह के अन्य मामले अखबारों की सुर्खियों पर अक्सर आते रहते हैं। सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार पर समूचा देश चिंतन करता है। चिंता करता है। देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बताते हुए स्यापा करता है। और आखिर में फतवा जारी कर देता है कि सेना में भ्रष्टाचार किसी भी कीमत पर समाप्त होना चाहिए। इसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। इस भ्रष्टाचार के मामले को इस प्रकार उठाया जाता है कि केवल सेना ही भ्रष्ट है और समाज के समस्त अंग ईमानदारी से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं और पाक-साफ हैं।इस सच्चाई से लोग आंखें मूंद लेते हैं कि हमारी सैन्य में व्यवस्था में सेनाध्यक्ष का स्थान सातवां है। महामहिम राष्टपति सेना के सुप्रीम कमंाडर होते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, रक्षा राज्य-मंत्री, रक्षा उपमंत्री, केबिनेट सेक्रेटरी और रक्षा सचिव सभी सिवलियन अथवा असैनिक होते हैं। फिर सेना में घपले के लिए केवल सेना को ही दोष नहीं दिया जा सकता। सेना के लगभग सभी महत्वपूर्ण निर्णय इन्हीं उच्चाधिकारियों द्वारा लिये जाते हैं।हमारी सैन्य संरचना में ब्रिगेडियर से ऊपर के पद यानी मेजर जनरल, ले। जनरल, जनरल आदि पदों पर नियुक्ति व प्रोन्नति केबिनेट कमेटी फॉर एपांटमेंट (केबिनेट की नियुक्ति समिति) करती है। अतः इन अधिकारियों पर भी सीधा दवाब ऊपर वाले आकाओं का ही रहता है।वास्तविकता यह है कि जब समूचा समाज भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ हो। भ्रष्टाचार को समाज से मान्यता मिल गई हो। समाज में भी धनी आदमी का सम्मान हो। धन के माध्यम से सब कुछ खरीदा जाता हो तो हम केवल सेना से ईमानदार होने की अपेक्षा क्यों रखते हैं ? आखिर सेना भी तो समाज का अंग है। इसमें आने वाले सिपाही अथवा अधिकारी इसी समाज से ही तो आते हैं जो भ्रष्टाचार अथवा गलत तरीके से कमाये धन को बुरा नहीं मानता। एनडीए में आने वाले अधिकारी सत्रह वर्ष तक इसी भ्रष्ट समाज में रहते हैं। इसी प्रकार सीडीएस के माध्यम से सेना में अधिकारी बनने वाले युवा भी इसी भ्रष्ट समाज की देन है। सब समूचा समाज ही भ्रष्ट होगा। तो उसी परिवेश में पला-पढ़ा फौजी कैसे ईमानदार हो सकता है। यह मानवीय स्वभाव है जिसे बदला नहीं जा सकता। आखिर फौजी भी इसी समाज का अंग है। उसे अपने परिवार के साथ इसी समाज में रहना है। बच्चे पढ़ाने हैं। उनकी विवाह-शादी करनी है और आखिर में रिटायर होकर इसी समाज में आकर रहना है। उसे भी इंजीनियरिंग व मेडीकल में प्रवेश पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। लड़कियों की शादी में दहेज देना पड़ता है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सेना अन्य समाज के अंगों से कैसे अलग हो सकती है। अगर सेना ही भ्रष्ट है तो क्या समूचा देश ईमानदार है ? हमारे देखते ही देखते चिकित्सा और शिक्षा भारी-भरकम मुनाफा कमाने वाले व्यापार में बदल गई है। देश व प्रदेश का कोई ऐसा विभाग नहीं है जहां भ्रष्टाचार की तूती नहीं बोलती हो। और तो और हमारे राजनेता तो आज भ्रष्टाचार के पर्याय बन गये हैं। हमारे कथित धार्मिक गुरू भी भ्रष्टचार की पावन गंगा में आकंठ डूबे हुए हैं।अगर सेना से भ्रष्टाचार को रोकना है तो सारे देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करना पड़ेगा। भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करना पड़ेगा। जब समाज ईमानदार होगा। शिक्षा व्यवस्था सकारात्मक व नैतिक मूल्यों की झंडावरदार होंगी। समाज में भ्रष्टों का अपमान व ईमानदारों का सम्मान होगा। सारे देश में भ्रष्टचारियों के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाई जाये। भ्रष्टाचार को राष्टीय समस्या घोषित किया जाये। अवैध तरीके से अर्जित चल-अचल सम्पति जब्त की जाये। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल जैसी अदालतें स्थापित हो जो भ्रष्टाचार के मामले पर तीन महीने के अंदर अपना फैसला सुनायें। समाज भी भ्रष्टाचारियों को महिमामंडित करने से रोके। मुनाफाखोरी, जमाखोरी तथा कालाबाजारी पर प्रतिबंध लगाया जाये क्योंकि अनाप-शनाप धन एकत्रित-अर्जित करने वाला यह वर्ग ही समूची व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने पर तुला हुआ है।

राहुल का 2012 मिशन

उत्तर प्रदेश की राजनीति फिर गर्मा रही है। कांग्रेस ने खोये हुए आधार को वापस लाने के लिए अपने युवराज राहुल को मैदान में उतार दिया है। हालांकि वह लोकसभा चुनाव से पहले ही प्रदेश में सक्रिय हो गये थे। इससे कांग्रेस को सफलता भी मिली। अब राहुल गांधी का मिशन 2012 पूरे शबाव पर है। वह पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे हैं। अभी उन्होंने 14 अप्रेल को अकबरपुर से पूरे प्रदेश के लिए यात्रा रैलियों को हरी झंडी दिखाई। वह बुंदेलखण्ड की बदहाली पर नौ-नौ आंसू बहा रहे हैं। वह लगातार प्रदेश सरकार को आड़े हाथों लेने का कोई भी मौका नहीं चूक रहे। जातिवादी और धर्मवादी राजनीति के विपरीत विकास की राजनीति की वकालत करके उन्होंने निश्चय ही एक नया राजनीतिक खाका खींचने की कोशिश की है। वह केन्द्रीय धन की बर्वादी और अनुपयोग के लिए लगातार बसपा सरकार पर हमका बोल रहे हैं। मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने के लिए उन्होंने पार्टी की टास्क फोर्स भी बनाई है। वह युवाओं को राजनीति में आने का आह्वान कर रहे हैं। पर वह इस हकीकत को भूल जाते हैं कि आज की राजनीति साधन-संपन्न लोगों की रह गई है। संगठन में पद का मामला हो अथवा लोकसभा और विधानमंडलों में टिकिट देने का, प्रत्याशी की माली हालत देखी जाती है। उसकी साधन संपन्नता देखी जाती है। ऐसे में क्या निर्धन और साधनविहीन युवा कांग्रेस से जुड़ेंगे जिनकी संख्या करोड़ों में है। फिर युवा भी इतना बेवकूफ नहीं है कि राहुल की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाये और जिंदगी भर पार्टी की दरी बिछाता रहे और अपने नेताओं की जिंदाबाद तथा विपक्षियों की मुर्दाबाद करता रहे। अतःराहुल की राह निरापद नहीं है। प्रदेश में पार्टी का जो मौजूदा संगठन में उसमें जंग लग चुका है। निरंतर सत्ता में रहने के कारण वह सड़क की राजनीति के लिए लगभग बेकार साबित हुए हैं। केन्द्र में सरकार होने के कारण प्रदेश के अधिकांश नेता सत्ता की मलाई चाटने में लगे हैं। गणेश परिक्रमा का दौर जारी है। उ.प्र. के हर शहर और जिले में गिनती के कांग्रेसी नजर आते हैं। वह भी आम जनता से दूर दलाली और भूव्यापार में लिप्त हैं। अभी राहुल ने प्रदेश के जिला संगठन पर नजर रखने के लिए समन्वयक नियुक्त किये हैं। उन समन्वयकों के नाम देखकर नहीं लगता कि वह पार्टी को आंदोलन की पार्टी बना पायेंगे। इन जिला समन्वयकों में अधिकांश भूमाफिया अथवा नवधनाढ्य लोग हैं। वह अपनी तिकड़म और पैसे के बल पर जिला कोर्डीनेटर बने है। जमीनी स्तर के किसी कार्यकर्ता को इस लायक नहीं समझा गया। राहुल गांधी का मिशन केवल साधन संपन्न लोगों के जुड़ने से पूरा नहीं होगा। उन्हें जमीनी कार्यकर्ताओं को दल की बागडोर सौंपनी होगी। बुद्धिजीवियों का भरोसा जीतना होगा। जिस कांग्रेस कल्चर की वह बात करते हैं। उसे यथार्थ में परिणित करना होगा अन्यथा उनका मिशन अधूरा ही रहेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या राहुल प्रदेश और जिला तथा शहर संगठनों में इतना आमूलचूल परिवर्तन कर पायेंगे। संगठनों पर दशकों से कुंडली मारकर बैठे नागों को नाथ पायेंगे ? वैसे भी बसपा के जनाधार में गिरावट के कोई संकेत नहीं हैं। वहीं सपा भी पूरे जोश के साथ प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में लगी है। राहुल जिस जातिवादी राजनीति के परिवर्तन की बात कह रहे हैं। वह इतना आसान नहीं है। जब तक रोटी-बेटी जाति में होती रहेगी, कोई भी जातिवाद को नहीं तोड़ सकता। इसके बावजूद उनके प्रदेश और राष्टीय स्तर के नेता जातिवादी सम्मेलन में शिरकत करके उनके विकास की राजनीति की हवा निकाल रहे हैं। यह पाखंड चलने वाला नहीं है। दूसरा मुख्य कारण यह है कि प्रदेश में ऐसा कोई करिश्माई, चरित्रवान और ईमानदार कोई नेता नहीं है जिसपर प्रदेश की जनता विश्वास कर ले। राहुल गांधी की इमेज भी अपने पिता राजीव की तरह मिस्टर क्लीन की है। लेकिन कालांतर में राजीव गांधी को भ्रष्टाचार की कालिख पोतने में विरोधियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रचंड बहुमत होते हुए भी उन्हें सत्ताच्युत होना पड़ा। क्या राहुल अपनी राजनीति में सफल होंगे और प्रदेश में नया इतिहास लिखेंगे अथवा वोट की राजनीति की नौटंकी करते ही रह जायेंगे।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

अम्बेडकर के सपनों से खेलते उनके अनुयायी़



’’वे धन्य हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि जिन लोगों में हमारा जन्म हुआ। उनका उद्धार करना हमारा कर्तव्य है। वे धन्य हैं, जो गुलामी का खात्मा करने के लिए अपना सब कुछ निछावर करते हैं। और धन्य हैं वे, जो सुख और दुःख, मान और अपमान, कष्ट और कठिनाइयां, आंधी और तूफान-इनकी बिना परवाह किये तब तक सतत् संघर्ष करते रहेंगे, जब तक कि अछूतों को मानव के जन्मसिद्ध अधिकार पूर्णतया प्राप्त न हो जायें।’’


युगांतरकारी व्यक्तित्वों की श्रृंखला में डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। उन्होंने आजीवन गैर बराबरी तथा मानवता के लिए संघर्ष किया। सदियों से शोषित और उत्पीड़ित दलितों के जीवन में एक नया अध्याय जोड़ा। यह उनके संघर्ष का ही परिणाम है कि आज दलित देश की सत्ता में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय संविधान के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान कराया। उससे ही दलितों के भाग्य का सूूरज उदय हुआ जो आज विभिन्न क्षेत्रों में दैदीप्यमान हो रहा है।निःसंदेह डा. अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे। उनके दिलो-दिमाग में दलितों की जाति विशेष न होकर सम्ूपर्ण दलित वर्ग था जो जलालत की जिंदगी व्यतीत कर रहा था। शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो के मूल मंत्र के आधार पर उन्होंने दलितों में स्वाभिमान की भावना पैदा की। वह राजनीतिज्ञ की अपेक्षा समाज सुधारक थे। उनका जीवन दलितों के उत्थान और विकास को समर्पित था। अफसोस इस बात का है कि उनकी मृत्यु के बाद दलित आंदोलन बिखर गया। वह दिशाहीन हो गया तथा सत्ता के लिए डा. अम्बेडकर के सपनों से बलात्कार करके कुर्सी पाने में अधिक सक्रिय रहा। जिस मनुवाद और ब्राह्मणबाद के वह आजीवन विरोधी थे। उनके कथित अनुयायियों ने उसको फलने-फूलने का अवसर दिया। सत्ता के लिए उनके सिद्धांतों की बलि चढ़ायी। यही कारण है कि आज दलितों का कोई सर्वमान्य नेता अथवा मसीहा नहीं है। अगर हैं भी तो दलितों की जाति विशेष के हैं। दलित आंदोलन के पतन का मुख्य कारण इस वर्ग के नेताओं की दिशाहीनता तथा स्वार्थपरता रही। यह लोग आज भले ही उनकी जयंती जोर-शोर से मना रहे हों लेकिन वस्तुतः वह उनके सिद्धांतों की हत्या कर रहे हैं। यही कारण है कि आजतक दलित वर्ग एकजुट नहीं है। उनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। किसी भी दलित राजनेता के पास दलितों के लिए कोई एजेंडा नहीं है। आज भी दलित एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। जिस छूआछात के खिलाफ डा. अम्बेडकर आजीवन लड़ते रहे आज दलित वर्ग भी दलित और महादलित के रूप में विभक्त हो गया है। उनका आपस में कोई तालमेल नहीं है। दलितों में भी ऊंच-नीच की भावना बड़ी तेजी से पनपती जा रही है। लगभग हर दलित जातियों के अलग-अलग संगठन हैं। अपने-अपने आराध्य हैं। अपने-अपने सिद्धांत हैं। अपनी-अपनी परम्पराएं हैं। आखिर जब दलित एकजुट नहीं होंगे तो उनका आंदोलन कैसे चलेगा और कैसे उनकी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होगा।दलितों में भी महादलित वाल्मीकि जाति आज भी मनसा-वाचा-कर्मणा से डा. अम्बेडकर को स्वीकार नहीं कर पाई है। उनके आराध्य महर्षि वाल्मीकि हैं। वह हिंदू धर्म की सभी मान्यताओं को मानते हैं और अपने हिंदू होने पर गर्व महसूस करते हैं। इसके विपरीत दलितों की जाटव जाति के लोग हिंदू धर्म से विमुख हैं। वह अम्बेडकर द्वारा अपनाये गये बौद्ध धर्म की विचारधारा के अधिक नजदीक हैं। कोरी, खटीक, धोबी आदि दलित जातियों में अम्बेडकर की विचारधारा आज तक नहीं पहुंची है। इसके लिए वह दलित नेता अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते जो अपने को डा. अम्बेडकर का अनुयायी मानते हैं। उनके मिशन को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं। यही कारण है कि डा. अम्बेडकर जयंती में सम्पूर्ण दलितों की भागीदारी नहीं होती अपितु इसमें जाटव जाति का हर्षोल्लास अधिक दिखाई पड़ता है। दलितों के समाज सुधार का आंदोलन दम तोड़ चुका है। वह दिशाहीन और दिशाभ्रमित है। इसी लिए दलितों में हताशा और निराशा का भाव समाहित है।वस्तुतः दलितों में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने आरक्षण के माध्यम से ऊंची-ऊंची नौकरियां हासिल की हैं। आरक्षण के कोटे के कारण बड़े-बड़े ओहदे हासिल किए हैं। मंत्री, सांसद और विधायक हैं। यह लोग दलित को मिलने वाले हर लाभ को अजगर की भांति निगल रहे हैं। जिस समाज से यह आये हैं। उस दीन-हीन और वंचित समाज के लिए इनके दिल में संवेदनशून्यता का भाव है। इन पढ़े-लिखे और साधन-संपन्न लोगों ने डा. अम्बेडकर के आंदोलन की हत्या की है। उनके कारवां को रोका है। अगर सुविधाओं से वंचित दलितों की आंखें खुल गई तो वह इस नवधनाढ्य-अफसरी वर्ग को माफ नहीं करेगा।डा. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि उनकी पूजा हो। उनकी मूर्तियों लगें और लोग उन्हें भगवान मानें। इस संदर्भ में उन्होंने 14 अप्रैल 1942 में मुम्बई के परेल में अपनी जयंती पर आयोजित विराट सभा को संबोधित करते हुए कहा था - ’’नेता योग्य हो, तो उसके प्रति आदर प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं, परंतु मनुष्य को ईश्वर के समान मानना विनाश का मार्ग है। इससे नेता के साथ ही साथ उसके भक्तों का भी अधःपात होता है ? इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा जन्म दिवस मनाने की प्रथा बंद कर दी जाय।’’
आवश्यकता इस बात की है कि अगर डा. अम्बेडकर के जाति-विहीन, शोषणविहीन तथा समतायुक्त समाज की संरचना करनी है तो हमें आत्मचिंतन करना पड़ेगा। इस देश का बहुत बड़ा नुक्सान जातिवाद से हुआ है। समाज जातियों में बड़ी तेजी से बंटता जा रहा है। जातिय संगठन इतने प्रभावशाली हो गए हे कि वह सरकार तक को चुनौती देने लगे हैं। राजनीति जातिवाद के भंवरजाल में फंस चुकी है। शोषक लोग एकजुट होकर लोकतांत्रिक संस्थानों पर योजनाबद्ध तरीके से कब्जा करने में लगे हैं। समानता और समता बेमानी हो गया है। इसके लिए चिंतनशील व संघर्षशील लोगों को आगे आना होगा।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

अपने को बदलो कलमकारों

जाने कब हम कलमकारों का जमीर जागेगा औेर सच्चाई की जंग के लिए आगे आएंगे ? आजादी के बाद जो अपेक्षाएं थीं। समतायुक्त समाज का सपना था। हर हाथ को काम और रोटी का वादा था। क्या हुआ इन वायदों और संकल्पों का ? आज भी अंधेरे में भारत सिसक रहा है। किलकारियां मार रहा है तो केवल इंडिया। वह इंडिया जहां कारपोरेट सेक्टर है। मॉल हैं। फिल्मी ग्लैमर है। राजनीति की गंगा है। थैलीषाहों और कालेधन वालों की बस्ती है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? हम भले ही राजनैतिक दलों को दोशी ठहरायें लेकिन वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद कलमकारों से जो उम्मीदें थीं। वह पूरी तरह धराषायी हो गईं हैं। वह भी सŸाा का दलाल बनकर इठलाता है। उसकी पूरी कोषिष रहती है कि वह किसी पद को प्राप्त करे। उसकी पुस्तकों को पुरस्कार मिले। उसके पुत्र-पुत्रियों को अच्छा रोजगार मिले। इसके लिए भले ही उन्हें अपने आत्मसम्मान की बोली लगानी पड़े तो भी वह पीछे नहीं रहता। यही कारण है कि समाज में कलमकारों के प्रति सकारात्मक और आषाजनक दृश्टिकोण नहीं है।यह अफसोस की बात है कि हम कलमकारों ने अपने को देवदूत समझ लिया है। आम जनता से हमारा कोई जुड़ाव नहीं रह गया है। हम आम आदमी से मिलना ही नहीं चाहते। उसकी दुःख और तकलीफों में षरीक होना हमारी षान के खिलाफ है। इस समय सारा देष महंगाई से जूझ रहा है। लोग भुखमरी के कारण आत्महत्या तक कर रहे हैं। ऐसे विशम समय में कलमकारों ने क्या जनता को जागरूक करने का प्रयास किया ? क्या उन्हंे सच्चाई से अवगत कराया कि देष में बेतहाषा अच्छी फसल होने के बावजूद आम आदमी को महंगा अनाज क्यों मिल रहा है ?ं गरीबों को चिकित्सा और षिक्षा से क्यों महरूम किया जा रहा है ? ऐसा नहीं किया कलमकारों ने क्योंकि जनता के पास न तो कलमकारों को देने के लिए पैसे हैं और न ही वह उन्हें सŸाा सुखों का भोग करवा सकती है।यही कारण है कि आज किसी भी कलमकार की समाज में कोई पहचान नहीं है। आष्चर्य तो तब होता है कि राश्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कथित साहित्यकारों को उनके मौहल्ले वाले ही नहीं जानते। अखिर जाने क्यों ? वह न तो किसी के दुख दर्द में जाते हैं और न ही वह इस बात का ख्याल रखते हैं कि उनके क्षेत्र के लोग किस समस्या से जूझ रहे हैं। वह आम आदमी की षवयात्रा में जाना अपनी तौहीन समझते हैं। इसमें दोश किसका है कि यह बात हम अक्सर कहते हैं कि समाज में हमें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आखिर क्यों मिले आपको आम जनता का सम्मान ? आपने क्या किया हैै उनके लिए ? क्या कभी आप उनके कंधे से कंधा भिड़ाकर जनसमस्याओं के लिए आंदोलनरत् हुए ? कभी किसी निर्दोश को पुलिस से छुड़ाने के लिए किसी पुलिस थाने में गये।अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या कलमकार भी अन्य लोगों की तरह केवल कलम से मजदूरी कर रहा है या उसका समाज के प्रति भी कुछ दायित्व है। अगर समाज के प्रति वह अपने दायित्व को नकारता है तो वह किस मुंह से कहता है कि समाज में कलमकारों को उचित मान-सम्मान नहीं मिल रहा। यह प्रष्न भी अनुत्तर है कि आखिर हम किसके लिए लिख रहे हैं। क्या कवि-गोश्ठी में चंद लोगों के सामने काव्य-पाठ कें लिए अथवा किसी पत्र-पत्रिका में अपनी रचनाएं छपवाने के लिए। अगर आप इसी में संतुष्ट हैं तो फिर शिकायत क्यों ? क्यों आप अपने को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहते हो ? क्यों कहते हो अपने को ेजनवादी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी कलमकार ?याद रखिए कि अगर हमने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया तो भावी पीढ़ियां हमें कदापि माफ नहीं करेंगी। जब हम अपनी कलम से गरीब, मजदूर,, दलित और महिलाओं के उत्पीड़न की बात लिखते हैं। लेकिन अपने घरों व प्रतिष्ठानों में हमें उन्हें ही उपेक्षित और उत्पीड़ित करते हैं। क्या यह हमारा दोगलापन नहीं है ? क्यों किसी सेठ को देखकर हमारी बांछें खिल जाती हैं और निर्धन को देखकर क्यों तिरस्कार का भाव पैदा होता है ?बदलते परिवेश में आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्मचिंतन करें। हमें मान के साथ लोगों की कड़वी बातों को सुनने की भी आदत डालनी होगी। हम परमब्रह्म नहीं हैं। हम नियंता भी नहीं हैं। हम अन्य लोगों की भांति हाड-मांस के पुतले हैं। अन्य लोगों की तरह सारी बुराइयां हममें हैं। हम अपने मतलब के लिए किसी के सामने दुम हिला सकते हैं। जोड़-तोड़ में भी हम माहिर हैं। हम हर जगह अपनी गोटी बैठाने की जुगत में ही लगे रहते हैं।इतिहास गवाह है कि कबीर इसलिए महान नहीं थे कि वह कवि थे। वह इसलिए महान हुए कि उन्होंने निर्भीकता के साथ तत्कालीन समाज के पांखड का पर्दाफाश किया। जनता से उनका सरोकार हमेशा बना रहा। वह कलम के सौदागर नहीं थे अपितु मेहनत-मजदूरी से अपना और अपने परिवार का लालन-पालन करते थे। इसीलिए आज भी कबीर प्रासंगिक हैं।अतः अब भी वक्त है कि जाग जाओ और जनता से अपनी दूरियां मिटाओ। जिनके बारे में अपनी रचनाओं में लिख रहे हो। उन्हें गले लगाओ अन्यथा इतिहास को तुम्हें कूड़ेदान में फेंकने में देर नहीं लगेगी।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

क्या विधायिका में पत्नियाँ या प्रेमिकाएं होंगी

जब हम अपने अतीत पर नजर डालते है तो पाते है कि प्राचीन काल में गार्गी, मैत्रेयी, अपाला जैसी प्रसिद्ध महिला दार्शनिक थी। स्वंतत्रता आंदोलन में भी महिलाओं का योगदान पुरुषों से कम नही था। इस आंदोलन से जुड़ने के गांधीजी के आह्वान पर ऐसे समय महिलाओं ने इसमें भाग लिया जब सिर्फ 2 प्रतिशत महिलाएं ही शिक्षित थीं। इस तथ्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महिलाओं के लिये घर से बाहर निकलना कितना कठिन था परंतु वे फिर भी बाहर निकली। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा के सदस्य के रूप में महिलाओं ने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार करने के काम में हिस्सा लिया। लेकिन आजादी के बाद भी वह कमजोर व पिछड़ी बनीं रही, जिस कारण महिला सशक्तिकरण की आवश्यक आन पड़ी। महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य है सामाजिक सुविधाओं की उपलब्धता, राजनैतिक और आर्थिक नीति निर्धारण में भागीदारी, समान कार्य के लिए समान वेतन, कानून के तहत सुरक्षा एवं प्रजनन अधिकारों को इसमें शामिल किया जाता है। सशक्तिकरण का अर्थ किसी कार्य को करने या रोकने की क्षमता से है, जिसमें महिलाओं को जागरूक करके उन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य संबंधित साधनों को उपलब्ध कराया जाये। इसी बात को ध्यान में रखते हुए यूपीए की सरकार ने अपने इस संकल्प को दोहराया है कि वह महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करेगी। इसका खुलासा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद के दोंनो सदनों के संयुक्त अधिवेशन में अपने अभिभाषण में किया। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार संसद और विधायिका में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी 33 से बढ़ाकर 50 फीसदी करने को प्रतिबद्ध है। जबकि वर्तमान में केवल बिहार और मध्यप्रदेश के स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण 50 फीसदी है। इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार की नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी से संतुष्ट नहीं है। अतः उनकी भागीदारी बढ़ाने को कारगर कदम उठाए जाएंगे। महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए राष्ट्रिय महिला साक्षरता मिशन की स्थापना की जाएगी। यह सभी कार्य 100 दिन में पूरे किए जाने का संकल्प है। पंचायतो को सशक्त बनाना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का सपना था तथा उसमें महिलाओं की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करना संप्रग सरकार का संकल्प है। वर्तमान में महिलाओं को पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण है, परन्तु वर्तमान में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 42 फीसदी हो चुका है। सरकार संशोधन करके महिलाओं को 50 फीसदी सीटें देना चाहती है। देखा गया है कि सत्ता हाथ में आते ही महिला प्रतिनिधियों ने अपने अधिकारों को पहचाना और वे सामान्य विकास के साथ गांव के सामाजिक मुद्दों में मुखर साबित हुई है। इस प्रकार से ये संस्थाएं जो पहले समाज के प्रभुत्ववर्ग की बपौती होती थी, वे ग्राम पंचायत की इकाई बनती दिखाई दे रही हैं। इस तरह महिलाओं के आने से, जिनमें निचले वर्ग की महिलाएं भी शामिल थी, ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को पंचायती राज के द्वारा साबित किया। बिहार के कटिहार जिले के एक भिखारिन हलीमा खातून ने किराड़ा पंचायत के चुनाव में विजयी होकर पंचायती राज के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा,कि अगर फटेहाल जिंदगी से बेहाल लोग जब किसी कार्य को करने की ठान ले, तो कोई ताकत भी उनको नही रोक सकती है, इसी तरह उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले में 60 फीसदी महिलाओं को पंच निर्वाचित किया गया। जहांतक संसद और विधानमंडलों में महिलाओ के आरक्षण का प्रश्न है। तो यह समय संप्रग सरकार के लिए अनुकूल है। मुख्य विरोधी दल भाजपा सहित वाम मोर्चा उसके साथ है। इस विधेयक में आमूलचूल परिवर्तन की बात कहने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव अब उतनी मजबूत स्थिति में नहीं कि वह महिलाओं को आरक्षण से रोक पाएं। लेकिन इसका पास होना इतना आसान नहीं है। इस संदर्भ में इस विधेयक के विरोधियों के पक्ष को सहज खारिज नहीं किया जा सकता। विरोधियों की इस बात में दम है कि कानून पास होने से केवल संभ्रांत और ताकतवर परिवार की महिलाओं को ही इसका लाभ मिलेगा। दलित, पिछड़ी व अल्पसंख्यक महिलाएं इससे महरूम रहेंगी। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि आज भी मजबूरी में पार्टियां दलितों और पिछड़ों को टिकट देती हैं। इसके साथ यह भी तथ्य है कि रिजर्व सीट से कितनी महिलाओं को दलों ने अपना प्रत्याशी बनाया। क्या यह हकीकत नहीं है कि महिलाओं के नाम पर संसद और विधायिका में नेताओं के परिवार की महिलाएं अथवा उनकी प्रेमिकाएं ही चुनकर आती हैं। पार्टी की आम कार्यकर्ता महिला नहीं। यही स्थिति स्थानीय निकायों में हो रही है। जहां महिला रिजर्व सीट है। वहां काबिज प्रतिनिधि अपने परिवार की महिला को ही टिकट दिलवाते हैं। सरकार ने वादा किया है कि वह राष्ट्रिय महिला साक्षरता मिशन का गठन करेगी और महिलाओं को साक्षर बनाने संकल्प पूरा करेगी। सवाल इस बात का है कि क्या महिलाओं को वर्तमान प्रशासनिक मशीनरी के द्वारा साक्षर बनाया जाएगा अथवा सरकारी अनुदान को हजम करने में माहिर एनजीओ द्वारा साक्षर बनाया जाएगा। क्या फर्जी आंकड़ों के द्वारा साक्षरता का लक्ष्य पूरा होगा। इस बारे में यूपीए सरकार को सोचना होगा। केन्द्रीय नौकरियों में महिलाओं की कम भागीदारी पर चिंता व्यक्त करते राष्ट्रपति ने कहा कि वह उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देगी। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं। कम्प्यूटर और आउटसोर्सिंग के कारण वैसे ही सरकारी नौकरियों का अकाल है। बैंको सहित सरकारी प्रतिष्ठानों का अधिकांश कार्य ठेके पर हो रहा है। दूसरी ओर देश में करोड़ों बेरोजगारों की सेना है। यह बात समझ से परे है कि वह कैसे केन्द्रीय सेवाओं में महिलाओं को उचित भागीदारी देगी। देखते है आखिर मनमोहन की सरकार महिलाओं को कैसे मोहती है ?

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

कौन खत्म करेगा जातिवाद

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार जातिवाद पर तीखी टिप्पणी करते हुए इसे अमानवीय करार दिया है। दलितों के सामूहिक नरसंहार में फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की कि जातिवाद का समूल नाश होना चाहिए। वस्तुतः जातिवाद के खिलाफ हमारे महापुरुषों स्वामी विवेकानंद, डा. अम्बेडकर और डा. राम मनोहर लोहिया आदि का अभिमत गलत नहीं था। उन्होंने भारतीय समाज में जातिवाद का भयंकर खतरे के रूप में देखा था। राष्टीय एकता और अखंडता के लिए वह जातिवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। इसीलिए यह महापुरुष आजीवन जातिप्रथा के खिलाफ संघर्षरत् रहे। जहां डा. अम्बेडकर जातिविहीन व शोषणविहीन समाज के हिमायती थे। वहीं जातिप्रथा के खिलाफ डा. लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया था। लेकिन हमने इन महापुरुषों की बात को हवा में उड़ा दिया जिसका खामियाजा आज सम्पूर्ण देश उठा रहा है। अफसोस इस बात का है कि न तो डा. अम्बेडकर के अनुयायियों ने उनकी जातिविहीन समाज की परिकल्पना को साकार करने का प्रयास किया और न ही डा. लोहिया के चेलों ने जाति तोड़ने में दिलचस्पी दिखाई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपना अभिमत जाहिर करके एक ज्वलंत बहस को जन्म दिया है।इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति प्रथा इस देश में आदिकाल से चली आ रही है। इसके मूल में हमारे कथित धर्म हैं। हमारा हिंदू धर्म वर्ण व्यवस्था पर आधारित है जो मानता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से ही भारतीय समाज की संरचना हुई है। इसके साथ यह कहना समीचीन होगा कि इस वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था की मुख्य विशेषता ऊंच-नीच भी है। अमुक जाति उच्च है कि अमुक जाति से नीची। इस जाति प्रथा ने मानव को जन्म से ही शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कथित सवर्ण जहां जन्म के आधार पर अपने को श्रेष्ठता का अनुभव करता है वहीं दूसरी ओर शूद्र जन्म से ही अपने को नीच मानकर कुंठा और हीनभावना से ग्रसित हो जाता है। यह स्थिति केवल हिंदू धर्म में ही नहीं अपितु सभी धर्मों में है। जिन लोगों ने हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था से त्रस्त होकर इस्लाम ग्रहण किया। वह भी जातिवाद के शिकार है। कथित उच्च कुंलीन मुस्लिम भी जातिवाद की बुराई से अलग नहीं हैं। यही स्थिति ईसाई धर्म में भी है। जो दलित जातियां जाति प्रथा से मुक्ति का सपना देखते-देखते क्रिश्चियन हो गई। वह भी अपने से दलित रूपी जिन्न को दूर नहीं कर पाई हैं। और तो और सिख धर्म जो मानवता का संदेश देता है। जिसके गुरूओं ने जातिवाद को मानवता के लिए खतरा बताया। वह भी जातिवाद की बीमारी से मुक्त नहीं है। आज भी पंजाब में दलित अथवा पिछड़े सिखों के अलग गुरूद्वारे दिखाई देते हैं। सवाल पैदा होता है कि जातिवाद को कौन दूर करेगा ? अगर करेगा भी तो क्यों ? जिस जाति के लोगों को जाति के नाम पर श्रेष्ठता की बीमारी लग चुकी है। उससे जातिवाद समाप्त करने की अपेक्षा करना क्या उचित होगा ? जो लोग जातिवाद के शिकार हैं और जिन पर जाति के नाम पर अत्याचार व अमानवीय व्यवहार होता है, क्या उनकी आवाज को देश सुनेगा। इस जातिवाद को मिटाने के लिए सरकारों की भूमिका क्या होगी ? यह प्रश्न भी मन को मथ रहा है। क्या इस समस्या को मिटाने में सामाजिक संगठन अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे ? यह अनुत्तरित प्रश्न है।अगर सरकार की मंशा होती तो जातिवाद कब का समाप्त हो गया होता। लेकिन उसने इस ओर पहल नहीं की। बल्कि जातिवाद के सहारे अपनी राजनीति चलाते रहे। हां जातिवाद के खिलाफ चौ. चरण सिंह का एक साहसिक कदम याद आता है कि जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने प्रदेश में जाति के आधार पर संचालित व सरकार द्वारा अनुदानित शिक्षण संस्थान के नाम बदलने के लिए इन संस्थानों के प्रबंधक मंडल को विवश कर दिया था। उनके प्रयास का यह परिणाम हुआ कि राजपूत कालेज आरबीएस कालेज बन गया। ब्राह्ण कालेज परशुराम तथा अग्रवाल कालेज महाराजा अग्रसेन कालेज बन गया। अगर अन्य राजनेताओं ने चौधरी साहब का अनुसरण किया होता तो निश्चित रूप से जातिवाद का प्रभाव अवश्य कम होता।यह प्रगति की ओर अग्रसर भारत के लिए शर्मनाम बात है कि वह आज भी जातिवाद रूपी बीमारी को ढो रहा है। जब समाज का समूचा ताना-बाना बदल रहा है। परम्परागत पेशे बदल रहे हैं। पढ़ने-पढ़ाने, लड़ने-लड़ाने, व्यापार तथा सेवा करने में समाज की सभी जातियों ने अपने मूल स्वरूप को छोड़ दिया है तो फिर जातिवाद की लाश को ढोने से क्या फायदा ? समय का तकाजा है कि सरकार और सामाजिक संगठनों को इस बीमारी से निजात दिलाने के लिए पहल करनी होगी तथा साहसिक फैसले लेने होंगे। सरकार को सबसे पहला काम जाति-आधारित संगठनों की गतिविधियों पर रोक लगानी होगी। जाति के नाम के मोहल्लों और गांवो के नाम बदलने होंगे। चुनाव से पूर्व जाति-वार आंकड़े जो अखबारों में छपते हैं, उनपर रोक लगानी होगी। सभी केन्द्रीय, प्रांतीय, सार्वजनिक उपक्रम, शिक्षा तथा व्यवसाय से जुड़े लोगों को जातिय संगठनों से जुड़ने पर रोक लगानी होगी। सभी राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों को जाति संगठनों से जुड़े लोगों से परहेज करना होगा। विद्यालयों और नौकरी के फार्मों से जाति के नाम का कॉलम समाप्त करना होगा। सरकार को अंतरजातीय-अर्न्तधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करना होगा। अगर संभव हो तो सरकारी नौकरी पाने की आवश्यक योग्यता में अन्तरजातीय विवाह का प्रावधान करना होगा। मीडिया भी जातिवाद के उन्मूलन में सकारात्मक व ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है। अगर वह अपने अखबारों, चैनल्स पर जाति संगठनों के समाचार और गतिविधियां को छापने अथवा प्रसारित करने पर पाबंदी लगा दे तो जातिवाद की कमर सहज ही टूट सकती है। लेकिन सौ टके का सवाल पैदा यह होता है कि समाज, सरकार, मीडिया जातिवाद को वास्तव में मिटाना चाहते हैं।

उर्दू शायरी में तखल्लुस और कविता में उपनाम की परंपरा

किसी भी कवि सम्मेलन को देखो अथवा मुशायरे को। वहां इस अदब के नामचीन लोग मिल जायेंगे। किसी का नाम भोंपू है तो कोई पागल है। कोई सरोज है तो कोई रंजन। कोई संन्यासी है तो कोई निखिल संन्यासी। लेकिन इस सच्चाई को बहंत कम लोग ही जानते होंगे कि इनके असली नाम कुछ और है और साहित्यिक अथवा मंचीय नाम कुछ और। लेकिन यह लोग साहित्यिक जगत में इन्हीं उपनामों से चर्चित हैं। यही स्थिति उर्दू शायरों की है। इनके उपनाम अथवा तखल्लुस भी इनके मूल नामों से सर्वथा भिन्न हैं। वस्तुतः भाषा किस प्रकार दूसरी भाषा पर अपना अटूट प्रभाव डालती हैं। इसका साक्षात उदाहरण है उर्दू शायरी में तखल्लुस और हिंदी कविता में उपनाम। कहा जाता है कि तखल्लुस की शुरूआत उर्दू शायरी के जन्म से ही है। पहले शायर दक्षिण के एक शासक वली दक्खिनी थे। उर्दू में शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसका तखल्लुस हो। जैसे बहादुरशाह जफर, रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, आलम फतेहपुरी, मोहम्मद इकबाल हुसैन उर्फ खलिस अकबराबादी, अबरार अहमद उर्फ गौहर अकबराबादी आदि नामों की लम्बी श्रृंखला है। हिंदी में मिलन, सरित, प्रेमी, रंजन, विभोर, बिरजू, आजाद, दानपुरी, दिलवर, संघर्ष, राज, सहज आदि उपनाम ताजनगरी में चर्चित हैं।
आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठीनिरालाथा।
उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।
हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्माउग्र चंद्रधर शर्मागुलेरीआदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे।
जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि।
मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल )

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

राहुल भ्रष्टाचार पर चुप क्यों


भ्रष्टाचार के बारे में सारा देश मौन है। लगता है की सबने इस अपराध को स्वीकार कर लिया है। जब हमने अपराध को स्वीकार कर ही लिया है तो विकास के नाम पर नारेवाज़ी क्यों। राहुल गाँधी कहते हैं की उत्तर प्रदेश में मनरेगा सहित केंद्र की अन्य योजनाओं का सही ढंग से क्रियान्वन नहीं हो रहा है। सरकार गरीबों की सुध नहीं ले रही है। उन्हें एक बात माननी होगी की जब केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को अपराध ही नहीं माना तो उत्तर प्रदेश में क्या गलत हो रहा है। सरे देश में भ्रष्टाचार का परचम लहरा रहा है। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सेना सहित प्रशासन के सभी अंगों में यह पूरी तरह हाबी है। वस्तुत आज ईमानदार आदमी को घरवाले भी पसंद नहीं करते। समाज में भी उसका स्थान निरंतर नीचे की और जा रहा है। और तो और मालिक भी ईमानदार को पसंद नहीं करते। जो मालिकों का टैक्स बचा सके। उनके काले धंधे को चला सके। रिश्वत देकर उनकी समस्या का समाधान करवा सके। मेरा मानना हैं की देश विदेशी हमले से नहीं अपितु भ्रष्टाचार से गुलाम होगा। आज इस कथित महान देश में हर आदमी बिकाऊ है। संसद, विधायकों को तो जनता ने खुलेआम बिकते देखा है। नौकरशाही इसमें पूरी तरह लिप्त है। न्याय भी बिना पैसे के नहीं मिलता। इससे बड़ा इस देश का दुर्भाग्य क्या होगा जहाँ रिश्वत देकर सेना में सिपाही भर्ती होता है।रिश्वत देकर भर्ती युवा में क्या देशभक्ति की भावना होगी। वह दुश्मन के सामने गोली चलाएगा या पीठ दिखाकर भाग जायेगा। पुलिस में बिना रिश्वत दिए कोई युवा प्रवेश नहीं कर सकता। आजकर डाक्टर और इंजीनीयर भी पैसे देकर तैयार किये जाते हैं। भगवान के दर्शन भी बिना पैसे के नहीं हो सकते। जब सब कुछ पैसा ही है तो फिर इस भ्रष्टाचार पर घडियाली आंसूं क्यों। क्या राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश को कोसने की बजे अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ें तो उनके राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छा होगा। लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे। उनकी पार्टी के अधिकांश संसद, विधायक और मंत्री अरबपति और करोडपति हैं। वह यह भी जानते हैं की इतना पैसा बिना बेईमानी के नहीं आ सकता। वह अपनी पार्टी का टिकिट भी उसी व्यक्ति को देंगे जो चुनाव का खर्चा उठा सके। आज उनके साथ जो युवा नेता हैं। वह सब धनी हैं। गरीबी की लड़ाई लड़ने के लिए राहुल गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ भी आन्दोलन करना होगा. परन्तु क्या वह यह साहस कर सकेंगे। क्या राहुल गाँधी अपने पिता के नाना जवाहर लाल नेहरू की तरह भ्रष्टाचारियों को खुलेआम फांसी देने की वकालत करेंगे।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

आगरा के लाल अर्थात लाल बहादुर हो गए पद्मश्री




आगरा हिंदी प्रमुख केंद्र रहा है। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में यहाँ के लोगों ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी भूमि पर जन्म लिया है डा लाल बहादुर सिंह चौहान ने . कृशकाय शरीर, लम्बा कद, सादगी भरा जीवन. उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता कि ये हिंदी के जाने-माने साहित्यसेवी हैं. बोलचाल में सरलता. अहंकार दूर तक नहीं। यह रचनाकार लगभग अस्सी पुस्तकों का सर्जक है। कहने को तो वे न्यू आगरा इलाके में रहते हैं लेकिन उनके आस-पास के लोग तब चकित रह गए जब उन्हें अख़बार और दूरदर्शन से एक दिन मालूम पड़ा कि डाक्टर चौहान को भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य में पद्मश्री देने का फैसला किया है। देखते ही देखते वे आम से खास बन गए। डाक्टर साहब केवल साहित्यकार ही नहीं हैं अपितु समाजसेवी भी हैं। वह अन्य लोगों की तरह अपनी महानता और दानवीरता का बखान नहीं करते बल्कि मौन साधक के रूप में अपनी सेवा में तल्लीन रहते हैं। ज़र, जोरू और ज़मीं के लिए हमेशा से संघर्ष होते रहें हैं। लोग एक इंच ज़मीं के लिए जान दे और ले लेते हैं। ऐसे भौतिकवादी युग में डाक्टर चौहान ने अपने एत्मादपुर स्थित ग्राम बमनी में कई बीघा ज़मीं सरकार को स्कूल और चिकित्सालय खोलने के लिए दान कर दी। वह संगीत के भी शौक़ीन हैं। उन्हें देश की कई संस्थाओं से पुरस्कार मिल चुके हैं। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान उन्हें विज्ञानं भूषण की उपाधि से अलंकृत कर चुका है । हिंदी में उन्होंने नाटक, कविता, कहानी, जीवनी, उपन्यास आदि लिखे हैं। अनुगूँज उनका चर्चित काव्य संग्रह है। अभी 7 अप्रेल को देश के महामहिम राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया हैं। बयोवृद्ध होने के बाद भी उनका जोश युवाओं को मात कर देता है। उनकी तमन्ना हिंदी साहित्य का शिखर छूने की है। उनके चाचा डॉ शिवदान सिंह चौहान हिंदी के महान आलोचक थे। उनकी प्रेरणा से ही लाल बहादुर इस क्षेत्र में आये। पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान का पता ४६ दयाल बाग़ रोड, न्यू आगरा, आगरा तथा मोबाईल नंबर ९४५६४०२२७४ है.

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

जबसे तुमने किया किनारा




जीवन कालचक्र है। यह निरंतर चलता रहता है। दिन और रात, मिलना और बिछुड़ना, दुःख और सुख, यश और अपयश इसके पड़ाव हैं। लेकिन कुछ पल या मित्र ऐसे होते हैं , जिनकी याद भुलाई नहीं जा सकती। जीवन में कई ऐसे मित्र आये, जिनके बारे में मैं सोचा करता था की यदि इन्हें कुछ हो गया तो मेरे जीवन के पल कैसे काटेंगे। परन्तु जीवन का रथ निर्ममता के साथ दौड़ता रहता है। उन्हीं बिछुड़े पलों को इंगित करता यह गीत।


जबसे तुमने किया किनारा, टूट गया मेरा इकतारा

सॉस सांस में कम्पन होती, मिटा भाग्य का आज सितारा

हमने तुमने स्वप्न बुने थे, चाँद सितारे भी अपने थे

साथ रहेंगे साथ चलेंगे इक दूजे के लिए बने थे

मधुर मिलन की बंशी बजती, खुशियाँ दरवाजे पर झरतीं

सोना सा लगता था वह दिन उपवन में जब भी तुम मिलतीं

सूरज भी हमसे जलता था, चंदा भी नित नित गलता था

फूलों की मुस्कानें रोतीं, भंवरा हाथों को मलता था

मैंने तुमसे प्रीत बढाई , तुम भी मंद मंद मुस्काई

अम्बर धरती लगे झूमने , रजनीगंधा भी इठलाई

बिखर गए वे सपने सारे, बदल गए नदिया के धारे

अलगावों के बादल छाये बदल गए अब मीत हमारे

रूपसि तेरा रहा पुजारी, लेकिन तुम निकली पाषाणी

होम दिया अपने को तुम पर, रूपनगर की ओ महारानी

तुमने अपने पथ को मोड़ा, गैरों से अब रिश्ता जोड़ा

प्यार नहीं नफ़रत पीऊंगा , यादों में तेरी जीऊंगा

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

हरफनमौला था मेरा यार कमलेश

कमलेश ही था उसका नाम। बड़ा मस्त और दिलफेंक। अगर वह किसी से मिल ले तो उसकी सारी हरारत समाप्त हो जाये। कहने को तो वह बनिया था लेकिन बनियागीरी से कोसों दूर था। अगर उसके पास पैसे हों तो वह हातिमताई बन जाता था। उसे इस बात की फिक्र नहीं रहती थी कि यदि यह पैसे खत्म हो जायेंगे तो क्या होगा। वह कल की तो सोचता ही नहीं था। उसके पिता कांग्रेस के बड़े नेता थे। पेठे का अच्छा खासा कारोबार था। जब वह कालेज में पढता था। उसकी हरकतें मज़ा तो दे सकतीं थीं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुचाती थीं। कालेज के दिनों में वह एक छात्र संगठन यानि एन एस यू आई से जुड़ गया। घर पर सब कुछ था इसलिए वह बेफिक्री से नेतागीरी करता रहा। उसकी गाने बजाने और अभिनय में काफी रूचि थी इसीलिए वह इप्टा में शामिल हो गया। उस दौरान उसने कई नाटकों में भागीदारी की लेकिन वह मशहूर हुआ लोकगायक के रूप में। उन दिनों आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता पर शोध कर रहा था। उसी समय प्रख्यात रंगकर्मी सफ़दर हाशमी नुक्कड़ नाटक करते हुए काल के गाल में समां गए थे। उनकी शहादत से समूचा देश स्तब्ध रह गया। आगरा की सभी नाटक और साहित्यिक संस्थायों ने साझा मंच से उनकी स्मृति में शहर भर में नुक्कड़ नाटक और कवि सम्मलेन किये। इस साझा मंच में राजेश्वर प्रसाद, जितेंद्र रघुवंशी, हरिवंश चतुर्वेदी आदि शामिल थे। इसी दौरान मेरी कमलेश से मुलाकात हुई। सफ़ेद भकाभक कुरते पजामे में वह काफी स्मार्ट एवं सुदर्शन लग रहा था। उन दिनों उसके गीत लू लू तोहे पांच बरस न भूलू की पूरे आगरा में धूम मची हुई थी। दिवंगत वसंत वर्मा और कमलेश की जोड़ी ने आगरा को अपने क्रान्तिकारी गीतों की गायकी से आल्हादित कर दिया। इस दौरान उन्होंने स्वर्गीय राजेंद्र रघुवंशी रचित कई जनगीतों का गायन भी किया। उसी समय मेरी कमलेश सिंघल, वसंत वर्मा तथा सतीश महेन्द्रू से दोस्ती हुई। वह दोस्ती इतनी परवान पर पहुंची और हमारी दोस्ती के चर्चे चारों तरफ होने लगे। हमारी मंडली में कमलेश गायक, वसंत संगीतकार तथा सतीश अभिनेता और में यानि महाराज सिंह परिहार कवि था। किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए हम चारों पर्याप्त थे। किसी कारणवश कमलेश इप्टा से अलग हो गए और अपनी संस्था लोकरंग व मेरी संस्था इन्द्रधनुष को सक्रिय करने में जुट गए। उन्ही दिनों इन्द्रधनुष ने राजेंद्र मिलन रचित भीमाबाई होलकर खंडकाव्य पर आधारित नाटक का मंचन सूरसदन में किया। यह इन्द्रधनुष की पहली प्रस्तुति थी। इस नाटक का निर्देशन कमलेश सिंघल ने ही किया था। इस नाटक के परिकल्पनाकर थे हरी मोहन शर्मा साथी। जो अब संसार में नहीं हैं । वह बड़े मस्त आदमी थे। खाने पीने के शौक़ीन । मिठाई पर तो वे जान देते थे हालाँकि वह मधुमेह के मरीज़ थे फिर भी वह कभी अपनी इस बीमारी की चिंता नहीं करते थे। मरहूम उस्ताद अनवार खान हमारे नाटक में तबलावादक के रूप में कार्य कर रहे थे। इस नाटक में मैंने और राजेंद्र मिलन ने पहली बार अभिनय किया। इस नाटक में लगभग सभी कलाकार बिलकुल नए थे। यह नाटक काफी सफल रहा। अरे बात तो कमलेश के बारे में हो रहीं थी। मैं जाने कहाँ भटक गया। वह यारों का यार था। कलाकारों व कवियों के लिए उसका दालमोंठ और पेठे का दरबार हमेशा खुला रहता था। जब वह पी लेता था तो महिलाओं की जन्मपत्रियाँ खोलने लगता। तमाम की हिस्ट्री उसको पता थी। कौन किस का असली बाप है और जवानी में किसके किससे सम्बन्ध थे। उनकी किस्सागोई में रंडियों से लेकर कवि, रंगकर्मी, नेता, सेठ, पत्रकार सभी शामिल होते थे। उसकी नवीनतम जानकारियों से मैं तथा ताज प्रेस क्लब में मेरे अभिन्न मित्र उपेन्द्र शर्मा, कवि राज कुमार रंजन, अशोक सक्सेना सभी अवगत होते थे। वह दिल का बहुत उदार था। आगरा की कई नेत्रियों की उसने काफी मदद की थी। उसके भोलेपन अथवा उदारता का लाभ उठाने के लिए महिलाएं गरीब लड़कियों की शादी की झूठी बात करके उससे पेठा आदि मंगवा लेती थी फिर उन्हें मित्रो व रिश्तेदारों को अतिथि सत्कार के रूप में परोसतीं थी। लगभग ४५-५० वर्षा की आयु में भी उसकी हरकतें युवाओं जैसी होती थी। एकबार बल्केश्वर के मेले में उसने किसी को छेड़ दिया.कमलेश तो चलते बने लेकिन वसंत पकडे गए । मैंने बड़ी मुश्किल से वसंत को पुलिस के चंगुल से छुड्वाया। जैसे ही यह मामला ख़त्म हुआ कमलेश प्रकट हो गए। उस समय उसके चेहरे पर न तो अफ़सोस का भाव और न ही पछतावा। वह बोला यार मन नहीं माना। आज भले ही कमलेश हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उसकी शरारतें और मस्ती मन को स्पंदित करती है.

छलावे के ६३ साल



शिक्षा अधिकार कानून देश में लागू हो गया है। यह योजना या कानून भी कागजों पर दम तोड़ देगा। इस बात की क्या गारंटी है कि निजी स्कूलों में गरीबों के लिए २५ फीसदी स्थान आरक्षित किये जायेंगे। पहले से ही भारी भरकम मुनाफे का शिक्षा उद्योग और अधिक मुनाफा कमाएगा। जब से शिक्षा का निजीकरण किया गया है इसकी गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। कभी इस शिक्षा जगत में दानवीर, समाजसेवी और विद्यानुरागी आते थे। अब तस्वीर बादल गयी है। विशुद्ध धन्धेबाज इस व्यापार में कूद पड़े हैं। देश के लगभग सभी निजी शिक्षा संस्थान सरकारी अनुदान, वजीफा, पुस्तकालय अनुदान, संसद और विधायक निधि को डकार रहे हैं। इस दुधारू धंधे में यह लोग आज करोड़ों और अरबों में खेल रहें हैं। एक साल में ही बी एड कालेज खोलने वालों ने खूब कमाई की है। अगर केन्द्रीय सरकार वास्तव में देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाना चाहती है तो उसे क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। उसे पूरे देश में एक शिक्षा प्रणाली लागू करनी होगी। जिस स्कूल में गरीब, किसान, चपरासी के बच्चे पढ़ें उसी में सरकारी अधिकारियों, सांसदों, मंत्रियों के बच्चों की पढाई अनिवार्य करनी होगी। जब किसी सरकारी स्कूल में विधायक, संसद और सरकारी अधिकारियों के बच्चे पढेंगे तो उस स्कूल की शिक्षा अपने आप अच्छी हो जाएगी। लेकिन सरकार में बैठे अरबपति सांसद और मंत्री नहीं चाहते कि उनके बच्चे गरीबों के बच्चों के साथ पढ़ें। समूचे देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू कर दीजिये फिर देश में न तो दलितों को आरक्षण की जरूरत होगी और न ही पिछड़े वर्ग को। परन्तु ऐसा होगा नहीं। यह पूंजीवादी सरकार है जो समाजवाद का नारा तो दे सकती है पर उस पर अमल नहीं कर सकती। आज सरकारी अधिकारियों, सांसदों और विधायकों का स्कूल संचालकों के साथ गठजोड़ हो गया है। इस गठजोड़ की वजह से यह लोग अनाप शनाप कमाई कर रहें हैं। देश की जनता को आज़ादी के ६३ वर्ष तक छला जाता रहा है और यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी.