वर्तमान समय मूल्यों के पतन का है। ऐसे समय में रचनाकारों का दायित्व बन जाता है कि वे अपने युगधर्म का निर्वाह करें। यह ब्लॉग रचनाधर्मिता को समर्पित है। मेरा मानना है- युग बदलेगा आज युवा ही भारत देश महान का। कालचक्र की इस यात्रा में आज समय बलिदान का।
सोमवार, 31 मई 2010
वरिष्ठ कवि निखिल सन्यासी का सम्मान
आगरा स्थित नागरी प्रचारिणी सभा के शताव्दी वर्ष में वरिष्ठ कवि निखिल सन्यासी का सम्मान किया गया। सांसद डाक्टर राम शंकर कठेरिया, विख्यात कवि सोम ठाकुर, पूर्व सांसद व कवि प्रो ओमपाल सिंह निडर ने उन्हें शाल पहनाकर तथा प्रशस्ति पत्र भेट कर उनका सम्मान किया। अध्यक्षता की सरोज गोरिहर ने। इस अवसर पर कवि गोष्ठी हुई जिसमें डाक्टर राज कुमार रंजन, डाक्टर महाराज सिंह परिहार, कैप्टेन व्यास चतुर्वेदी, डाक्टर त्रिमोहन तरल, राज बहादुर राज, शहीद नदीम, प्रताप दीक्षित, राजेंद्र मिलन, रामेन्द्र त्रिपाठी आदि कवियों ने काव्य पाठ किया। सञ्चालन व संयोजन किया मशहूर गीतकार शिव सागर शर्मा ने। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार तथा बात बेबात के ब्लोगेर डाक्टर सुभाष राय, अशोक सक्सेना आदि भी मौजूद थे।
शनिवार, 29 मई 2010
नहीं है ईमानदारी हिंदी पत्रकारिता में
हिंदी पत्रकारिता जिसने आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया। वह आज कहीं दिखाई नहीं देती। समाज को जाग्रत करने तथा उसे पाखंडों से निकालने की अपेक्षा पत्रकारिता समाज को गलत दिशा में ले जा रही है। कभी सम्मान का यह पेशा अब दलालों, पूंजीपतियों तथा भ्रष्ट नेतायों की जुगलबंदी में बदल गया है। आज का पत्रकार केवल अपने आका को खुश करने में लगा रहता है क्योंकि वह जनता है की वह अपनी योग्यता से नहीं अपितु किसी की मेहरवानी से आया है। सारे देश के हिंदी अखवारों में यही स्थिति है। एक जाति विशेष के पत्रकारों का इस पेशे में वर्चस्व है। अधिकांश पत्रकारों को न तो हिंदी का आधिकारिक ज्ञान है और न ही उसमे विश्लेषण क्षमता है। वह बिना विज्ञप्ति के समाचार नहीं लिख सकता। उसका सामान्य ज्ञान हाई स्कूल तक का भी नहीं है। किसी भी अखवार में पत्रकारों व् सह संपादकों की भर्ती के लिए न तो कोई परीक्षा होती है और न ही इस क्षेत्र में उसकी योग्यता को मापा जाता है। यह भी सच्चाई है की किसी भी संपादक को योग्य, ईमानदार और अपने से अधिक शिक्षित पत्रकार पसंद नहीं होते । वह उन्हें हर समय अपमानित और नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। सभी को दल्ले, जुगाडू और चमचों की जरूरत है। यह मेरा दावा है कि हिंदी के अखवारों के अधिकांश पत्रकार केंद्र सरकार कि एस एस सी कि परीक्षा और सम्पादक पीसीईस कि प्रारम्भिक परीक्षा भी पास नहीं कर सकते। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कि नेट परीक्षा पास तो वह जिंदगी में नहीं कर सकते. अखवारों के मालिक और सम्पादक जातीय पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। यही कारन है कि दलित पत्रकार अखवारों में खोजने से भी नहीं मिलते। देश में धर्म और जाति का जो नंगा खेल चल रहा है उसके लिए मीडिया के जातीय और संकीर्ण विचारधारा के यही लोग जिम्मेदार हैं। आज की हिंदी पत्रकारिता का यही सच है। मीडिया बहुत मृत की बात करता है लेकिन क्या उसने कभी अपने गिरेबान में झाँकने का प्रयास किया कि वह कितने पानी में है। चमचों को तरक्की मिलती है और योग्य लोगों को हाशिये पर डाला जाता है. पत्रकारिता में पराड़कर, पालीवाल, विद्यार्थी, सुरेन्द्र प्रताप सिंह जैसे निष्पक्ष पत्रकारों का युग समाप्त हो गया। आप हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इस दिन सिवाय आंसू बहाने के और क्या किया जा सकता है। पूँजी और चाटुकारों कि टोलियाँ इस मिशन को ध्वस्त करने में लगीं हैं.
बस सरकार चल रही है
यूपीए सरकार ने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे आम आदमी को राहत मिले। किसी तरह से मनमोहन सिंह अपनी सरकार चला रहे हैं। यह सरकार अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाने में असमर्थ दिखाई देती है।यह दिशाहीन सरकार है। आम जनता को इससे भविष्य में कोई उम्मीद नहीं है। वस्तुत सरकार चलाना इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं जितना सरकार का काम करना है। दिल्ली में मनमोहन सिंह की सरकार नहीं अपितु भानुमती का कुनबा राज कर रहा है। कांग्रेस की मजबूरी है कि वह सरकार का नेतृत्व कर रही है। सरकार जनाकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है। सरकार के साझीदार अपनी उंगलियों पर मनमोहन सिंह तथा उनकी नेता सोनिया गांधी को अपनी उंगलियों पर नचा रहे हैं। परस्पर अन्तर्विरोधों के चलते यह सरकार प्रभावशाली भूमिका नहीं अदा कर पा रही है। ममता अलग राग अलाप रहीं है तो शरद पवार अपनी कलाबाजियों खेल रहे हैं। इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी इसके नेतृत्व का कमजोर होना है। जो प्रधानमंत्री जनता के सामने से डरता हो। वह जनता द्वारा सीधा चुनकर आने की अपेक्षा बैकडोर से संसद में पहुंचता हो। वह सही अर्थों में जनता का सही प्रतिनिधि नहीं हो सकता। यही वजह है कि प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाते। अगर वह जनता के द्वारा चुने प्रतिनिधि होते तो निश्चित रूप् से उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान होता। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। आम आदमी के नाम पर वोट लेकर सत्ता में आई इस सरकार का आम जनता से कोई सरोकार नहीं है। वह योजनाएं तो अच्छी बना लेती है लेकिन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी नौकरशाही पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए। वह उसे मुहैया नहीं हो रहा है। यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी गोदामों में लाखों टन अनाज बर्वाद हो जाता है लेकिन उसे गरीबों को उपलब्ध कराकर सरकार उनके पेट की आग शांत नहीं करना चाहती। ऐसा नहीं कि यूपीए सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है। उसने कई ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाओं को अंजाम दिया है जो देश की कायाकल्प कर सकता है। शिक्षा गारंटी योजना, मनरेगा, शेैक्षिक ढांचे का पुर्नगठन सहित परमाणु समझौता आदि ऐसे काम है जो भारत का भाग्य बदल सकते हैं। मनमोहन सिंह ईमानदार और स्वच्छ छवि के हैं। उनके नेतृत्व में सरकार केवल चल रही है और उसकी योजनाओं से जनता को सीधा फायदा भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण नहीं पहुंच रहा है।
शुक्रवार, 28 मई 2010
आम आदमी से दूर मनमोहन
केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपना एक वर्ष पूरा कर लिया है। लेकिन जिस आम आदमी का नारा देकर यह सरकार आई थी। वह आम आदमी कहां है ? कहां है उसके सपने ? कौन सोच रहा है उसकी बुनियादी समस्याओं के समाधान के लिए ? वैसे मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल के छह वर्ष पूरे कर लिये हैं। स्वच्छ छवि का होने के बावजूद उनकी सरकार की छवि जनता में अच्छी नहीं है यानी कैप्टन तो बढ़िया है लेकिन खिलाड़ी घटिया हैं। इस सरकार मंहगाई रोकने के लिए अभी तक कोई भी कारगर कदम नहीं उठाया। मंहगाई बढ़ाने में जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोई संकेतात्मक कार्रवाई भी नहीं की। महिला आरक्षण कानून जो इस सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता सूची में शामिल था। उसे भी वह लोकसभा में पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। नक्सलवाद सीना ताने सरकार के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। पाक भी अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलवाला है। सरकार की महत्वपूर्ण योजना मनरेगा भी जमीन पर कम कागजों पर अधिक दिखाई दे रही है। अगर सरकार की यही कार्यदिशा रही तो क्या वह भविष्य में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बना सकेगी। राजनीति में स्वच्छता का नारा भी बेमानी लगता है। खेल भी अब भ्रष्टाचार में गरदन तक धस चुके हैं। अब क्या उम्मीदें हैं सरकार से।
पानी पर होगा युद्ध
इस समय समूचा देश जल संकट से त्राहि-त्राहि कर रहा है। अगर यही आलम रहा तो पानी ही लड़ाई का प्रमुख कारण बन जायेगा। क्योंकि जीने के लिए भोजन से भी अधिक पानी की जरूरत होती है। आश्चर्य इस बात का है कि इस भयावहता की ओर न तो सरकार का ध्यान है और न ही जनता का। वह किसी चमत्कार का इंतजार कर रही है। अगर समय रहते हम नहीं चेते तो निश्चित रूप से इस महान देश पानी के अभाव में काल-कवलित हो जायेगा।
बढ़ते औद्योगीकरण तथा हरित क्रांति का सबसे बड़ा भार पानी पर पड़ा है। हमारी नदियां गंदे नाले में परिवर्तित हो गयीं हैं। गांव और शहरों का सारा कूड़ा-कचरा तथा सीवर नदियों में बेखौफ प्रभाहित की जा रही है। भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन करने से उसके जलस्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। वर्षा के जल का हम संचय नहीं कर रहे। तालाबों और पोखरों पर हमने कब्जा करके आलीशान इमारतें खड़ी कर ली हैं। नदियों के पाट पर भी हम डायनासोर की तरह फैेलते जा रहे हैं। इस चिंतनीय स्थिति की ओर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। सन् 1947 में देश मे प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 6000 घनमीटर थी जो कि 2017 तक घटकर मात्र 1600 घनमीटर रह जायेगी। ताजे जल का एक मात्र स्रोत भूगर्भ जल, जो पीने के अतिरिक्त कृषि और उद्योग के उपयोग में आता है। हरित क्रांति के बाद भूगर्भ जल का अत्यधिक मात्रा में दोहन हआ है। पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जिन्होंने हरित क्रांति में अर्वाधिक फायदा उठाया, वही बेतहाशा नलकूपों के लगने से भूमिगत जल के स्रोत लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुंच गये हैं। भूमिगत जल के अत्यधिक नीचे जाने से पानी में लवण की मात्रा भी काफी बढ़ गई है। सिंचाई हेतु जो नहरें बनाई गई थीं, उनका पचास फीसदी पानी ही वास्तविक रूप से सिंचाई के लिये प्रयुक्त हो पाता है। मौसम परिवर्तन की वजह से वर्षा भी कम जोती जा रही है। जहां सबसे अधिक पानी बरसता था, वो भी पेयजल संकट से ग्रसित हो गये हैं। इजरायल जहां वर्षा का औसत महज 25 सेमी है। उनसे हमें सबक लेना चाहिए कि वे जल की एक-एक बूंद की कीमत समझते हैं। इसके विपरीत भारत में वर्षा का औसत 115 सेमी है। जिसके मात्र पच्चीस फीसदी जल-संचय से हम पानी के संकट से मुक्ति पा सकते हैं। लेकिन हमारा 90 फीसदी वर्षा का जल नदियों के माध्यम से सागर में समा जाता है। इस ओर हमने कोई ध्यान नहीं दिया है। इस वर्षा जल को बचाने हेतु वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहन, तालाब, पोखरों की सफाई, कुओं को रिचार्ज करना, बंजर भूमि व पहाड़ी ढालों पर वृक्षारोपण, कृषि के लिए उचित फसल चक्र अपनाने, पेयजल आपूर्ति करने वालली पाइप लाइनों की नियमित देखरेख आदि से जल-संरक्षण को नई दिशा दी जा सकती है। सरकार ने अभी तक भूजल संरक्षण के लिए अभी तक कोई कठोर कदम नहीं उठाये हैं। शहरों के मकानों में कुकुरमुत्तों की तरह लगे समरसेबिल भूजल का अत्यधिक अपव्यय कर रहे हैं। आर-ओ प्लांट अथवा जल बेचने वाले औद्योगिक संस्थानों में पिचहत्तर फीसदी अवशिष्ट जल बेकार चला जाता है। जरूरत इस बात की है कि सरकार जल संरक्षण को प्राथमिकता दे तथा कड़ाई से जल का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करे। जनता को भी इस सच्चाई का समझना होगा कि हमारे द्वारा किये गये जल के अपव्यय का खामियाजा हमारी आगामी पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा।
रविवार, 23 मई 2010
तखल्लुस और कविता में उपनाम की परंपरा
किसी भी कवि सम्मेलन को देखो अथवा मुशायरे को। वहां इस अदब के नामचीन लोग मिल जायेंगे। किसी का नाम भोंपू है तो कोई पागल है। कोई सरोज है तो कोई रंजन। कोई संन्यासी है तो कोई निखिल संन्यासी। लेकिन इस सच्चाई को बहंत कम लोग ही जानते होंगे कि इनके असली नाम कुछ और है और साहित्यिक अथवा मंचीय नाम कुछ और। लेकिन यह लोग साहित्यिक जगत में इन्हीं उपनामों से चर्चित हैं। यही स्थिति उर्दू शायरों की है। इनके उपनाम अथवा तखल्लुस भी इनके मूल नामों से सर्वथा भिन्न हैं। वस्तुतः भाषा किस प्रकार दूसरी भाषा पर अपना अटूट प्रभाव डालती हैं। इसका साक्षात उदाहरण है उर्दू शायरी में तखल्लुस और हिंदी कविता में उपनाम। कहा जाता है कि तखल्लुस की शुरूआत उर्दू शायरी के जन्म से ही है। पहले शायर दक्षिण के एक शासक वली दक्खिनी थे। उर्दू में शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसका तखल्लुस न हो। जैसे बहादुरशाह जफर, रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, आलम फतेहपुरी, मोहम्मद इकबाल हुसैन उर्फ खलिस अकबराबादी, अबरार अहमद उर्फ गौहर अकबराबादी आदि नामों की लम्बी श्रृंखला है। हिंदी में मिलन, सरित, प्रेमी, रंजन, विभोर, बिरजू, आजाद, दानपुरी, दिलवर, संघर्ष, राज, सहज आदि उपनाम ताजनगरी में चर्चित हैं।आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य व विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ था।उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े न आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी‘ आदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे। जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि। मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल ह)
शुक्रवार, 21 मई 2010
जरूरी नहीं मुस्लमान फतवे को स्वीकारें
मजहबी ठेकेदार समाज पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए अपने धार्मिक अधिकारों का दुरुपयोग करते आ रहे हैं। वह नहीं चाहते कि लोग पढ़ें, लिखें, उनका विवेक जाग्रत हो। अगर लोग पढ़-लिखकर ज्ञानवान और विवकेशील बन जाएंगे तो इन कथित गुरुओं, पंडितों और मुल्लाओं की दुकानें खत्म हो जायेंगी। वस्तुतः हर मजहब के ठेकेदार अपने मजहबी लोगों को सदियों से अपनी लकड़ी से हांकते आ रहे हैं। पहले लोग अशिक्षित थे। ज्ञान के प्रकाश से दूर थे। अतः उनकी वकबास को भी ईश्वर अथवा खुदा का फरमान समझकर स्वीकार कर लेते थे। लेकिन जैसे ही समय ने करवट ली। लोगों में जाग्रति फैली। वह अपने विकास के बारे में सोचने लगा। उसका जीने का नजरिया बदल गया। लेकिन फिर भी कठमुल्ले अपने मजहबी लोगों को हांकने से बाज नहीं आ रहे हैं। अभी हाल में इस्लामी मजहबी संस्था दारुल-उलूम देवबंद द्वारा कामकाजी इस्लामी महिलाओं के बारे में जारी फतवे ने एक नई बहस छेड़ दी है। फतवे के मुताबिक इस्लामी महिलाओं के लिए सरकारी या निजी क्षेत्र में पुरुषों के साथ काम करना, पुरुष सहकर्मियों के साथ मेलजोल बढ़ाना व बातचीत करना इस्लाम विरोधी है। इससे पहले भी विवादास्पद फतवे जारी हुए। महिला की कमाई को हराम घोषित करना, सानिया मिर्जा की स्कर्ट, शोएब-सानिया के विवाह पूर्व साथ-साथ रहने सहित पंचायत चुनाव, बाल काटना, उन्हें काला रंग में रंगने के खिलफ भी फतवे जारी हुए। हालांकि पढ़े-लिखे लोग इन फतवों को अधिक महत्व नहीं देते लेकिन इससे नारी की गरिमा पर चोट तो लगती है।
इस्लाम में गैर-बराबरी नहीं
इस्लाम गैर-बराबरी की इजाजत नहीं देता। प्रगति के लिए मुहम्मद साहब ने कभी कोई बंदिश नहीं लगाई। पैगम्बर से इल्म की तालीम लेने आती थीं। इस फतवे का संभवतः यह आशय हो सकता है कि इस्लामी महिलाएं लाज-शर्म में रहें। वैसे भी आये दिन कामकाजी महिलाओं की यौन शोषण की शिकायतें आती रहती है। अगर वह तड़क-भड़क से दूर रहेंगी तथा मर्दों से अधिक नजदीकियां नहीं बढ़ाएंगी तो वह उनके शोषण से मुक्त रहेंगी। कट्टर इस्लामी देशों में भी औरतें काम करती हैं। पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में औरत ने देश की कमान संभाली है।
फतवा फरमान नहीं होता
वस्तुतः फतवा कोई फरमान नहीं होता जिसकी तामील की जाये। वैसे भी मजहबी ठेकेदारों को अपने मजहबी लोगों पर शिकंजा कसने में मजा आता है। मुल्ला और पुजारी नहीं चाहते कि लोग विवेकशील हों। इन फतवों की परवाह कौन करता है। यह कोई फरमान नहीं जिसे मानने के लिए बाध्य हों। वैसे इन फतवों से मुसलमानों का अहित ही हो रहा है जो आज के दौर में भी बेकारी, भुखमरी और अशिक्षा के वातावरण में जी रहे हैं।
फतवे व्यक्तिगत होते हैं
वैसे इस फतवे पर बेकार में ही हाय-तोबा हो रही है। इस तरह के कई फतवे जारी हुए हैं। लेकिन तरक्कीपसंद और शिक्षित मुसलमानों ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया। अगर इन मुल्लाओं का मुसलमानों में इतना ही दखल होता तो हमारे फिल्म-जगत में एक भी मुस्लिम-औरत नहीं होती। फतवा तो सानिया मिर्जा के खिलाफ भी दिया गया था लेकिन उसका क्या हश्र हुआ। सभी जानते हैं।
औरत पर कामकाजी पाबंदी नहीं
इस्लाम में औरत के कामकाज पर कोई पाबंदी नहीं है। वह हिजाब में रहे। अपनी हया और शर्म को बरकरार रखें। उत्तेजक पोशाकों से अपने को महरूम रखें। पर्दा मुस्लिम जगत ही नहीं हिंदुओं में भी है। आज भी देहातों में पर्दा प्रथा है। अपने से बड़ों के सामने पर्दा करना हमारी परम्परा रही है। इस्लामी महिला बिना अत्याधुनिका बने भी प्रगति का सोपान पा सकती है। वैसे शर्म और हया ही औरत का जेवर है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता।
फतवा संविधान के खिलाफ
भारतीय संविधान इस देश में रहने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष को को समानता का अधिकार देता है। हर किसी को पढ़ने-बढ़ने और काम करने की आजादी है तो फिर मजहबी लोग कौन होते हैं पाबंदी लगाने वाले। इस तरह के फतवों से अन्ततः मुस्लिमों का ही नुक्सान होगा जिसकी ठेकेदारी का दम फतवा देने वाले भरते हैं। देश की मुख्यधारा में आने के लिए मुस्लिम महिलाओं को और अधिक शिक्षित होकर देश के निर्माण में अपनी भागीदारी को अंजाम देना होगा।
इस्लाम में गैर-बराबरी नहीं
इस्लाम गैर-बराबरी की इजाजत नहीं देता। प्रगति के लिए मुहम्मद साहब ने कभी कोई बंदिश नहीं लगाई। पैगम्बर से इल्म की तालीम लेने आती थीं। इस फतवे का संभवतः यह आशय हो सकता है कि इस्लामी महिलाएं लाज-शर्म में रहें। वैसे भी आये दिन कामकाजी महिलाओं की यौन शोषण की शिकायतें आती रहती है। अगर वह तड़क-भड़क से दूर रहेंगी तथा मर्दों से अधिक नजदीकियां नहीं बढ़ाएंगी तो वह उनके शोषण से मुक्त रहेंगी। कट्टर इस्लामी देशों में भी औरतें काम करती हैं। पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में औरत ने देश की कमान संभाली है।
फतवा फरमान नहीं होता
वस्तुतः फतवा कोई फरमान नहीं होता जिसकी तामील की जाये। वैसे भी मजहबी ठेकेदारों को अपने मजहबी लोगों पर शिकंजा कसने में मजा आता है। मुल्ला और पुजारी नहीं चाहते कि लोग विवेकशील हों। इन फतवों की परवाह कौन करता है। यह कोई फरमान नहीं जिसे मानने के लिए बाध्य हों। वैसे इन फतवों से मुसलमानों का अहित ही हो रहा है जो आज के दौर में भी बेकारी, भुखमरी और अशिक्षा के वातावरण में जी रहे हैं।
फतवे व्यक्तिगत होते हैं
वैसे इस फतवे पर बेकार में ही हाय-तोबा हो रही है। इस तरह के कई फतवे जारी हुए हैं। लेकिन तरक्कीपसंद और शिक्षित मुसलमानों ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया। अगर इन मुल्लाओं का मुसलमानों में इतना ही दखल होता तो हमारे फिल्म-जगत में एक भी मुस्लिम-औरत नहीं होती। फतवा तो सानिया मिर्जा के खिलाफ भी दिया गया था लेकिन उसका क्या हश्र हुआ। सभी जानते हैं।
औरत पर कामकाजी पाबंदी नहीं
इस्लाम में औरत के कामकाज पर कोई पाबंदी नहीं है। वह हिजाब में रहे। अपनी हया और शर्म को बरकरार रखें। उत्तेजक पोशाकों से अपने को महरूम रखें। पर्दा मुस्लिम जगत ही नहीं हिंदुओं में भी है। आज भी देहातों में पर्दा प्रथा है। अपने से बड़ों के सामने पर्दा करना हमारी परम्परा रही है। इस्लामी महिला बिना अत्याधुनिका बने भी प्रगति का सोपान पा सकती है। वैसे शर्म और हया ही औरत का जेवर है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता।
फतवा संविधान के खिलाफ
भारतीय संविधान इस देश में रहने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष को को समानता का अधिकार देता है। हर किसी को पढ़ने-बढ़ने और काम करने की आजादी है तो फिर मजहबी लोग कौन होते हैं पाबंदी लगाने वाले। इस तरह के फतवों से अन्ततः मुस्लिमों का ही नुक्सान होगा जिसकी ठेकेदारी का दम फतवा देने वाले भरते हैं। देश की मुख्यधारा में आने के लिए मुस्लिम महिलाओं को और अधिक शिक्षित होकर देश के निर्माण में अपनी भागीदारी को अंजाम देना होगा।
सोनिया-राहुल की राजनीति
भीषण गर्मी में भी उत्तर प्रदेश का राजनैतिक वातावरण गरमाया हुआ है। सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी इन दिनों प्रदेश के दौरे पर हैं। उनकी निगाहें 2012 पर हैं जब यहां विधान सभा के चुनाव होने हैं। उन दोनों की कोशिश है कि आगामी चुनावों में पार्टी अपना पुराना गौरव प्राप्त कर ले जिससे आगामी लोकसभा चुनावों में उसे अपने बूते पर स्पष्ट बहुमत मिल चुके। हालांकि इस समय केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार है। इससे पहले भी कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार रही है। लेकिन कांग्रेस को अपनी सरकार चलाने के लिए कदम-कदम पर समझौता करना पड़ रहा है। वह न तो अपनी नीतियों को प्रभावशाली ढंग से लागू करवा पा रही है और न ही यूपीए सरकार में अनुशासन की भावना पैदा कर रही है। कांग्रेस के सहयोगी दल किस तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है। कभी ममता नाराज तो कभी शरद पवार की उलटबांसी। कभी करुणानिधि की चेतावनी तो कभी उनकी पार्टी के लोगों की बेवाकी। इन सबसे संभवतः राहुल और सोनिया खुश नहीं हैं। वैसे भी कांग्रेेस को एकछत्र राज करने की आदत है। इसलिए वह मजबूरी में अपने ऊपर उदारता का लबादा ओढ़े हुए है। यही सच्चाई उन्हें रास नहीं आ रही हैं। इसलिए मां-बेटे दोनों ही प्रदेश में पार्टी का जनाधार बढ़ाने में लगे हुए हैं। राहुल जहां अपना विकास और मनरेगा के विषय को उठाकर राज्य सरकार को आढ़े हाथों ले रहे हैं। वही दूसरी ओर उनकी मां गरीबों की हमदर्द के रूप मे अपने को स्थापित कर रहीं हैं। वह कहती हैं कि अभी तक प्रदेश में गरीबों को अपने मकान नहीं मिले। प्रदेश में कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। अब सवाल पैदा यह होता है कि किस प्रकार मां-बेटे प्रदेश में अपने दल का जनाधार बढ़ाएंगे। वह अपने को बसपा की प्रमुख विरोधी के रूप् में प्रस्तुत कर रही है। जबकि इस हकीकत को पूरा देश जानता है कि लोकसभा में कटौती प्रस्ताव पर बसपा ने यूपीए सरकार के पक्ष में बोट दिया था। इसी प्रकार मुलायमसिंह यादव ने भी सदन से वाक-आउट करके कांग्रेस की अप्रत्यक्ष मदद की थी। इन तथ्यों से जनता में स्पष्ट संदेश जा रहा है कि कांग्रेस बसपा-सपा से मिली हुई है। अतः जनता बसपा के खिलाफ उसे क्यों वोट दे ? वही स्थिति सपा के प्रति भी है। यह कैसे संभव है कि बसपा और सपा की छाती पर पैर रख्.कर कांग्रेस प्रदेश में जनाधार बना लेगी। अगर कांग्रेस को मजबूत करना है तो उसे बसपा-सपा से दूरी बनानी होगी। सत्ता के लिए समझौता बंद करना होगा। पार्टी संगठन में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। दलाल और भूमाफिया को पार्टी से निकालना होगा तथा स्वच्छ तथा ईमानदार लोगों को पार्टी में स्थापित करना होगा। वह गांधीवाद की बात करती है तो उसे जमीनी हकीकत में उसे बदलना होगा। अगर यह नहीं हुआ तो सोनिया-राहुल का प्रदेश में प्रभावी होने का सपना कभी भी फलीभूत नहीं होगा। प्रदेश की जनता सोनिया-राहुल के भाषण से ही बदलने वाली नहीं है।
बुधवार, 19 मई 2010
प्रगति के नए प्रतिमान
प्रगति के नए प्रतिमान
बंधू आगे बढ़ता चल,
सबका माल पचाता चल
अगर तरक्की करनी है तो
टंगड़ी मार गिराता चल
सबका माल पचाता चल
अगर तरक्की करनी है तो
टंगड़ी मार गिराता चल
सच्चाई को आग लगा दे,
भाईचारे को दफना दे
उन्हें डुबोकर बीच भंवर मेंभाईचारे को दफना दे
अपनी कश्ती पार लगा ले
झूठ फरेबों की नदियाँ में
गोते खूब लगाता चल.........
अगर कवि बनना है बन्दे,
चाटुकारिता सीखले मंडे
इधर उधर की कविता लेकर
डाल दे तुकबंदी के फंदे
साहित्यिक चोरी को अपना
मान के धरम निभाता चल.......
गर नेता बनाना है लाले,
बेशरमी को गले लगा ले
ठगी दलाली और चंदे की
सदाबहारी फसल उगा ले
विश्वासों में भोंक के खंजर
गुंडों को गले लगाता चल.....
यदि बनना चाहो पत्रकार
करो सच्चाई का तिरस्कार
सच का झूठ और झूठ का सच
कर शब्दों का ऐसा चमत्कार
दारू पीकर माल पचाकर
अपनी कलम चलाता चल....
थानेदार का यदि सपना है,
चोर बलात्कारी अपना है
रिश्वत तेरा सगा बाप है,
फिर भी राम राम जपना है
मां बहनों से जोड़ के रिश्ता
गाली बेख़ौफ़ सुनाता चल.......
शिक्षक पद यदि तू पा जाये,
ट्यूशन की तू नाव चलाये
शिक्षण करम छोड़कर प्यारेट्यूशन की तू नाव चलाये
फ़ोकट का तू वेतन पाए
कर तिकड़म नेतागीरी,
विद्या की लाश उठाता चल.........
संतन को सीकरी सूं ही काम
पहली नजर में उपर का शीर्षक ज़रूर पाठकों को अटपटा लगेगा पर सच्चाई से मुंह मोड़ना रचनाकार का काम नहीं है। रहे होंगे कभी संत कवि कुम्भन दास। जाने किस भावावेश में कह गए, संत को कहाँ सीकरी सूं काम। जबकि इतिहास गवाह है कि हमने हमेशा सत्ता के गलियारों के आश्रय में जीवन बिताया है, सत्तानायकों का स्तुतिगान किया है, उनकी कथित वीरता का बखान किया है, उनकी मनोत्तेजना बढ़ाने के लिए नायिका के स्वरूप का नख-शिख वर्णन किया है। वह भी बड़ी ही बेशर्मी से. रीतिकाल हमारी कविता और साहित्य में कलात्मक नजरिये से शायद इसी लिए स्वर्ण काल माना जाता है।
कितने मजे थे कि हम राजा-महाराजाओं की प्रशंसा में एक पद या दोहा लिखकर गा दें तो भरपूर इनाम-इकराम मिलता था, अशर्फियाँ बरसतीं थीं। अगर आका ज्यादा मेहरबान हो गए तो रंक से उठकर जमींदार बन जाना बड़ी बात नहीं थी। अब भी कमोबेश वही हालत है. युग तो बदला लेकिन प्रवृति नहीं बदली। राजा-महाराजाओं के स्थान पर हमारे कवियों के आराध्य प्रच्छन्न लोकतंत्र के तथाकथित राजा हो गए है। कोई कवि किसी का चालीसा लिख रहा है तो कोई किसी की रामायण। इसके पुरस्कार के रूप में उन्हें सत्ता के गलियारे में जगह भी मिल जाती है।
संत कबीर ने किसी सत्तानायक या मठाधीशों की स्तुति नहीं की। अतः वे मात्र दलितों व मार्क्सवादियों तक ही सीमित रह गए। तुलसीदास ने अपने आराध्य के लिए दास्य भाव से ओतप्रोत ग्रन्थ लिखा। इसका सुपरिणाम यह हुआ कि आज भी रामचरितमानस का जन-जन में प्रसार-प्रचार है। वह मंदिरों व मठों की शोभा बनी हुई है। अब जिस कविता से न तो समाज का सम्मान मिले और न ही इनाम-इकराम मिले तो क्या फायदा ऐसी कविता से।
इस सच्चाई को कुछ कवियों ने पहचान लिया और वह जुट गए अपने आराध्यों की चरण वंदना करने में. जिन्होंने कबीर को अपनाआदर्श माना, वे आज भी सत्ता के गलियारों से काफी दूर है। न तो उन्हें किसी अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया और न ही किसी संस्थान का उपाध्यक्ष. न तो ऐसे लोगों को यश भारती मिला और न ही कोई अन्य राजकीय सम्मान। अब आप ही बताइए कि साहित्य अब जनता के लिए कहाँ लिखा जा रहा है। अगर लिख भी लें तो जनता क्या देगी। हमें भी विलासिता के सभी साधन भोगने का अधिकार है या नहीं, अपने लिए जमीं -जायदाद बंबानी है या नहीं, बच्चों के लिए अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस छोड़ना है या नहीं ।
बेशर्मी के इस गुर में हम राजनीतिकों से भी आगे है। राजनेताओं में थोड़ी सी शर्म और हया बाकी है। यही कारन है कि सत्ता परिवर्तन के बाद वह अपने आका द्वारा दिए गए पदों को तत्काल ही छोड़ देते हैं, लेकिन हमारे संत कवियों को जनता से कोई मतालब ही नहीं है। यहाँ हम नेताओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। इन्हें जनता की किसी प्रतिक्रिया से कोई अंतर नहीं पड़ता। वैसे अधिकांश कवियों के असली पारखी कवि सम्मेलनों के गैर साहित्यिक आयोजक-संयोजक, राजनेता और शिक्षा तथा अकादमिक संस्थानों के सर्वेसर्वा ही हैं।
यही कारन है कि साहित्य व संस्कृति के इन कथित पुरोधाओं को उनके परिजन ही याद करते हैं। आखिर वह क्यों न करें। उन्होंने जिन्दगी भर जैसे-तैसे जो कुछ भी कमाया, वह केवल परिवार के लिए ही कमाया। कभी किसी कवि या शिष्य की कोई मदद नहीं की। अतः ऐसे कथित कवियों को लोग क्यों याद करें।
कुछ लोगों को मलाल है कि युवा साहित्यकारों का सम्मान नहीं करते। साहित्य की गरिमा और स्वाभिमान के लिए उनके दिल में कोई सम्मान नहीं है। वह दिशाभ्रमित हो गए हैं. सवाल है कि साहित्य की युवा पीढ़ी इन मठाधीशों का सम्मान क्यों करे। अगर यह महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में हिंदी की बड़ी कुर्सी पर विराजमान होते हैं तो इन्हें प्रवक्ता, रीडर, प्रोफ़ेसर पद के लिए केवल अपने लडके-लड़कियाँ ही नज़र आते हैं। जो शिष्य उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखता है, उनके नित्य चरण स्पर्श करता है, जब वह यह देखता है कि महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में जब नौकरी कासमय आता है तो गुरुवर को केवल अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री अथवा परिवार के सदस्य ही नज़र आते हैं. इसका प्रमाण देश के उच्च शिक्षा संस्थानों के हिंदी विभागों में साफ़ देखा जा सकता है। आज भी शिष्य एकलव्य कि तरह अपना कटा अंगूठा लेकर नौकरी के लिए दौड़ रहा है।
अब निराला का दौर समाप्त हो गया है। दिनकर की हुंकार भी स्वार्थ के शोर में दब गयी है। बाबा नागार्जुन का साहित्य हाशिये पर है। अब जमाना केवल उन लोगों का है जो बदलती सत्ता के साथ अपनी निष्ठा और आस्थाएं बादल लें। नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दें और स्वाभिमान को कमीज़ की तरह उतार कर खूँटी पर टांग दें।
यही कारन है ki साहित्य के ये मठाधीश आम जनता की निगाहों में बेगाने से रहते हैं । जिन गरीब व मज़दूरों पर यह कविता लिखते हैं, उन्हें अपने पास बैठाना या उनके घर जाना अपना अपमान समझते हैं। ऐसे में जनता भी un बेकार लाशों को कब तक और क्यों ढोए जो उनके लिए अपनी कविता में तो घडियाली ऑंसू तो बहते हैं लेकिन उनके ऑंसू पोंछने की जगह अपना बड़ा पेट भरने में ही लगे रहते हैं। आखिर कितना बड़ा है इनका पेट?
संतन को सीकरी सूं ही काम
कितने मजे थे कि हम राजा-महाराजाओं की प्रशंसा में एक पद या दोहा लिखकर गा दें तो भरपूर इनाम-इकराम मिलता था, अशर्फियाँ बरसतीं थीं। अगर आका ज्यादा मेहरबान हो गए तो रंक से उठकर जमींदार बन जाना बड़ी बात नहीं थी। अब भी कमोबेश वही हालत है. युग तो बदला लेकिन प्रवृति नहीं बदली। राजा-महाराजाओं के स्थान पर हमारे कवियों के आराध्य प्रच्छन्न लोकतंत्र के तथाकथित राजा हो गए है। कोई कवि किसी का चालीसा लिख रहा है तो कोई किसी की रामायण। इसके पुरस्कार के रूप में उन्हें सत्ता के गलियारे में जगह भी मिल जाती है।
संत कबीर ने किसी सत्तानायक या मठाधीशों की स्तुति नहीं की। अतः वे मात्र दलितों व मार्क्सवादियों तक ही सीमित रह गए। तुलसीदास ने अपने आराध्य के लिए दास्य भाव से ओतप्रोत ग्रन्थ लिखा। इसका सुपरिणाम यह हुआ कि आज भी रामचरितमानस का जन-जन में प्रसार-प्रचार है। वह मंदिरों व मठों की शोभा बनी हुई है। अब जिस कविता से न तो समाज का सम्मान मिले और न ही इनाम-इकराम मिले तो क्या फायदा ऐसी कविता से।
इस सच्चाई को कुछ कवियों ने पहचान लिया और वह जुट गए अपने आराध्यों की चरण वंदना करने में. जिन्होंने कबीर को अपनाआदर्श माना, वे आज भी सत्ता के गलियारों से काफी दूर है। न तो उन्हें किसी अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया और न ही किसी संस्थान का उपाध्यक्ष. न तो ऐसे लोगों को यश भारती मिला और न ही कोई अन्य राजकीय सम्मान। अब आप ही बताइए कि साहित्य अब जनता के लिए कहाँ लिखा जा रहा है। अगर लिख भी लें तो जनता क्या देगी। हमें भी विलासिता के सभी साधन भोगने का अधिकार है या नहीं, अपने लिए जमीं -जायदाद बंबानी है या नहीं, बच्चों के लिए अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस छोड़ना है या नहीं ।
बेशर्मी के इस गुर में हम राजनीतिकों से भी आगे है। राजनेताओं में थोड़ी सी शर्म और हया बाकी है। यही कारन है कि सत्ता परिवर्तन के बाद वह अपने आका द्वारा दिए गए पदों को तत्काल ही छोड़ देते हैं, लेकिन हमारे संत कवियों को जनता से कोई मतालब ही नहीं है। यहाँ हम नेताओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। इन्हें जनता की किसी प्रतिक्रिया से कोई अंतर नहीं पड़ता। वैसे अधिकांश कवियों के असली पारखी कवि सम्मेलनों के गैर साहित्यिक आयोजक-संयोजक, राजनेता और शिक्षा तथा अकादमिक संस्थानों के सर्वेसर्वा ही हैं।
यही कारन है कि साहित्य व संस्कृति के इन कथित पुरोधाओं को उनके परिजन ही याद करते हैं। आखिर वह क्यों न करें। उन्होंने जिन्दगी भर जैसे-तैसे जो कुछ भी कमाया, वह केवल परिवार के लिए ही कमाया। कभी किसी कवि या शिष्य की कोई मदद नहीं की। अतः ऐसे कथित कवियों को लोग क्यों याद करें।
कुछ लोगों को मलाल है कि युवा साहित्यकारों का सम्मान नहीं करते। साहित्य की गरिमा और स्वाभिमान के लिए उनके दिल में कोई सम्मान नहीं है। वह दिशाभ्रमित हो गए हैं. सवाल है कि साहित्य की युवा पीढ़ी इन मठाधीशों का सम्मान क्यों करे। अगर यह महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में हिंदी की बड़ी कुर्सी पर विराजमान होते हैं तो इन्हें प्रवक्ता, रीडर, प्रोफ़ेसर पद के लिए केवल अपने लडके-लड़कियाँ ही नज़र आते हैं। जो शिष्य उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखता है, उनके नित्य चरण स्पर्श करता है, जब वह यह देखता है कि महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में जब नौकरी कासमय आता है तो गुरुवर को केवल अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री अथवा परिवार के सदस्य ही नज़र आते हैं. इसका प्रमाण देश के उच्च शिक्षा संस्थानों के हिंदी विभागों में साफ़ देखा जा सकता है। आज भी शिष्य एकलव्य कि तरह अपना कटा अंगूठा लेकर नौकरी के लिए दौड़ रहा है।
अब निराला का दौर समाप्त हो गया है। दिनकर की हुंकार भी स्वार्थ के शोर में दब गयी है। बाबा नागार्जुन का साहित्य हाशिये पर है। अब जमाना केवल उन लोगों का है जो बदलती सत्ता के साथ अपनी निष्ठा और आस्थाएं बादल लें। नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दें और स्वाभिमान को कमीज़ की तरह उतार कर खूँटी पर टांग दें।
यही कारन है ki साहित्य के ये मठाधीश आम जनता की निगाहों में बेगाने से रहते हैं । जिन गरीब व मज़दूरों पर यह कविता लिखते हैं, उन्हें अपने पास बैठाना या उनके घर जाना अपना अपमान समझते हैं। ऐसे में जनता भी un बेकार लाशों को कब तक और क्यों ढोए जो उनके लिए अपनी कविता में तो घडियाली ऑंसू तो बहते हैं लेकिन उनके ऑंसू पोंछने की जगह अपना बड़ा पेट भरने में ही लगे रहते हैं। आखिर कितना बड़ा है इनका पेट?
संतन को सीकरी सूं ही काम
सोमवार, 17 मई 2010
महाकवि सूरदास सम्मान से अंलकृत डा. परिहार
साहित्यिक सेवाओं तथा पत्रकार जगत की उपलब्धियों, सफल संपादन व प्रगतिशील चिंतन के लिए डा. एम.एस. परिहार (डा. महाराज सिंह परिहार) को 17 मई की अर्द्धरात्रि को आगरा विकास संघ द्वारा आयोजित साहित्यकार सम्मान समारोह में महाकवि सूरदास सम्मान से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान पूर्व सांसद व प्रख्यात कवि प्रो. ओमपाल सिंह निडर तथा उ.प्र. हिंदी संस्थान के पूर्व उपाध्यक्ष तथा विख्यात गीतकार सोम ठाकुर ने प्रदान किया। इस मौके पर डा. सुभाष राय, पद्मश्री डा. लालबहादुर सिंह चौहान, पूर्व कुलपति डा. जीसी सक्सैना, डा. त्रिमोहन तरल आदि को भी इस सम्मान से विभूषित किया गया। कार्यक्रम के आयोजक आगरा के लोकसभा सदस्य प्रो. रामशंकर कठेरिया थे। यह समारोह डा. बीआर अम्बेडकर विश्वविद्यालय के खंदारी कैम्पस में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ जिसमें सोम ठाकुर, शिवसागर शर्मा, डा. राजकुमार रंजन, संजय झाला, व्यंजना शुक्ल आदि ने काव्य पाठ किया।
शिवसागर काव्य सभागार का शुभारम्भ
आज के समय में साहित्य के प्रति उपेक्षा का भाव है। लोगों के पास समय नहीं है इसे पड़ने और सुनने का। ऐसे परिवेश में किसी कवि का काव्य सभागार का निर्माण करना अपने में महत्वपूर्ण है। देश के मशहूर गीतकार शिवसागर शर्मा द्वारा निर्मित शिवसागर काव्य सभागार का लोकार्पण १६ मई को पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान ने किया। अजीतनगर स्थित इस सभागार में इस मौके पर कवि गोष्ठी हुई। अध्यक्षता शीलेन्द्र वशिस्ठ ने की। डाक्टर महाराज सिंह परिहार , रामेन्द्र त्रिपाठी, पद्मश्री चौहान, डाक्टर राज कुमार रंजन,अमी आधार निडर, शिवसागर शर्मा, राजकुमार राज, जीतेन्द्र जिद्दी, अरविन्द समीर, शशांक शर्मा, डाक्टर अशोक सिंह अदि कवियां ने काव्यपाठ किया। सञ्चालन डाक्टर राज कुमार रंजन व् आभार शिवसागर शर्मा ने प्रकट किया।
चित्र परिचय
2 पद्मश्री डाक्टर चौहान फीता काटते हुए। साथ में कवि शिवसागर
१ काव्य पाठ करते हुए डाक्टर महाराज सिंह परिहार ब्लोगर विचार-बिगुल
३ सरस्वती चित्र के साथ पद्मश्री चौहान डाक्टर परिहार एवं डाक्टर रंजन
शनिवार, 15 मई 2010
क्रांति का बिगुल
क्रांति का बिगुल
हम गीत प्यार के गाते हैं
क्रांति का बिगुल बजाते हैं
हम परिवर्तन के अग्रदूत
पानी में आग लगाते हैं
जब जब धरती का मान गिरा
और बेबस का सम्मान गिरा
मर्यादा का चीर के दामन
जब भूखे का इमान गिरा
तभी शब्द का तरकश लेकर सत्ता से टकराते हैं
धर्म बना मानव का बंधन
स्वार्थ हुआ माथे का चन्दन
जहरीली पछुआ बयारों से
होता है बगिया में क्रंदन
काले मेघा कजरारे हम जीवन जल बरसाते हैं
हम हरिश्चंद हें सतयुग के
घटघट वासी राम हैं
गीता का सन्देश सुनाते
हमीं स्वयं घनश्याम हैं
मानवता हित जहर को पीकर स्वयं शंकर बन जाते हैं
जब हंस चले बगुले की चाल
और नफरत की जले मसाल
भाईचारे को दफनाकर
प्यार बने बाजारू माल
कबिरा की वाणी बन जग को हम फटकार लगाते हैं
हम काँटों के मीत पुराने
हर आंसू से प्रीत है
रमते जोगी बहते पानी
यही हमारी रीत है
मिटा विषमता के जंगल को प्यार का फूल खिलाते हैं
हम गुरुकुल हैं संदीपनी के
और कौशल में बलराम हैं
इस सरसती के जीवनदाता
हमीं सुबह और शाम हैं
अंधकार की मिटा कालिमा सूरज हमीं उगाते हैं
हम गीत प्यार के गाते हैं
क्रांति का बिगुल बजाते हैं
हम परिवर्तन के अग्रदूत
पानी में आग लगाते हैं
जब जब धरती का मान गिरा
और बेबस का सम्मान गिरा
मर्यादा का चीर के दामन
जब भूखे का इमान गिरा
तभी शब्द का तरकश लेकर सत्ता से टकराते हैं
धर्म बना मानव का बंधन
स्वार्थ हुआ माथे का चन्दन
जहरीली पछुआ बयारों से
होता है बगिया में क्रंदन
काले मेघा कजरारे हम जीवन जल बरसाते हैं
हम हरिश्चंद हें सतयुग के
घटघट वासी राम हैं
गीता का सन्देश सुनाते
हमीं स्वयं घनश्याम हैं
मानवता हित जहर को पीकर स्वयं शंकर बन जाते हैं
जब हंस चले बगुले की चाल
और नफरत की जले मसाल
भाईचारे को दफनाकर
प्यार बने बाजारू माल
कबिरा की वाणी बन जग को हम फटकार लगाते हैं
हम काँटों के मीत पुराने
हर आंसू से प्रीत है
रमते जोगी बहते पानी
यही हमारी रीत है
मिटा विषमता के जंगल को प्यार का फूल खिलाते हैं
हम गुरुकुल हैं संदीपनी के
और कौशल में बलराम हैं
इस सरसती के जीवनदाता
हमीं सुबह और शाम हैं
अंधकार की मिटा कालिमा सूरज हमीं उगाते हैं
न्यायपालिका में होगी ईमानदारी की पूजा
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन ने अपनी सेवानिवृति से पूर्व दिये
अपने वक्तव्य में यह स्वीकार किया कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है लेकिन अधिक नहीं है। उनकी
इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि हमारे न्याय के मंदिर भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। भ्रष्टाचार कम हो
अधिक यह चिंतनीय तो है ही। वैसे हमारे कई न्यायमूर्ति संदेहों के घेरे में आए हैं और कुछ के
खिलाफ जांच भी चल रही है। एक और न्यायपालिका में मुकदमों का अम्बार है तो दूसरी ओर
भ्रष्टाचार के कारण इसकी गरिमा धूमिल हो रही है। इस परिवेश में नवनियुक्त न्यायमूति एचएस
कपाड़िया ने यह कहकर कि ईमानदारी उनकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है। और उन्होंने अपना कैरियर
चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में आरंभ किया है। यह निश्चित रूप से शुभ संकेत है। लगता है कि
अब न्यायपालिका में होगी ईमानदारी की पूजा का दौर आरंभ होगा।
भ्रष्टाचार का मुख्य कारण न्याय में देरी है। यही कारण है कि वादकारियों को सुविधा शुल्क देने के
लिए विवश होना पड़ता है। इस देश में देर से निर्णय अथवा जल्दी से निर्णय के लिए भी धन खर्च
करना पड़ता है। अगर हर मुकदमें के निर्णय के लिए निर्धारित अवधि तय कर दी जाये तो निश्चित
रूप से भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है। अफसोस इस बात का है कि यहां हर फाइल वनज
से ही आगे बढ़ती है। लेकिन जब समाज के सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। तो फिर न्यायपालिका से ही ईमानदारी की क्यों उम्मीद की जाती है। इस क्षेत्र में भी समाज के लोग ही आते हैं। जब समाज ईमानदार होगा तो निश्चित रूप से हमारी न्यायपालिका को ईमानदार होने से कोई रोक नहीं सकता। न्यायपालिका से भ्रष्टाचार मिटाने से जरूरी है। पूरे समाज को उससे मुक्त किया जाए। भ्रष्टाचारविहीन समाज में ही ईमानदार न्यायपालिका पनपती है।
ईमानदार न्यायपालिका के लिए जरूरी है कि बदलते परिवेश में न्यायधीशों की आचार संहिता की
समीक्षा की जानी चाहिए। राजनैतिक दवाब में हमारी न्यायपालिका निश्चित रूप से है। वास्तविकता
यह है कि जब पूर्व न्यायधीश सांसद, विभिन्न आयोगों के चेयरमैन बनेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें
राजनैतिक लोगों से संबंध बनाने होंगे। अतः सेवानिवृत न्यायाधीशों को न तो सांसद बनाया जाना
चाहिए और न ही उन्हें किसी जांच आयोग का अध्यक्ष बनाना चाहिए। तभी हमारी न्यायपालिका
पूर्वाग्रहों से रहित और निस्वार्थ हो सकती है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए न्यायपालिका की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव होना चाहिए। वर्तमान कालेजियम से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए विशेष बोर्ड बनना चाहिए जिसमें देश के प्रधानमंत्री, लोकसभा के स्पीकर, विपक्ष के नेता तथा देश के प्रख्यात कानूनविद हों। इसी प्रकार प्रदेश के मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता,विधानसभा के स्पीकर सहित प्रमुख कानूनविद इसमें होने चाहिए जिससे न्यायपालिका निर्भीक और निष्पक्ष होकर अपने दायित्व का निर्वाह करे।
न्यायपालिका में आई गिरावट का एक कारण आये दिन अधिवक्ताओं की हड़ताल है। जिससे
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इसके कारण वादकारियों को कई समस्याओं का
सामना करना पड़ता है। इसका लाभ न्यायिक कर्मी भी उठाते हैं। मानती हैं कि न्यायपालिका में
आये दिन होने वाली हड़तालों पर रोक लगनी चाहिए। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। इससे
मुकद्मों का शीघ्र निपटारा नहीं होता। अपनी सुनवाई जल्द कराने के लिए वादकारियों को
अतिरिक्त खर्च करने के लिए विवश होना पड़ता है।
अपने वक्तव्य में यह स्वीकार किया कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है लेकिन अधिक नहीं है। उनकी
इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि हमारे न्याय के मंदिर भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। भ्रष्टाचार कम हो
अधिक यह चिंतनीय तो है ही। वैसे हमारे कई न्यायमूर्ति संदेहों के घेरे में आए हैं और कुछ के
खिलाफ जांच भी चल रही है। एक और न्यायपालिका में मुकदमों का अम्बार है तो दूसरी ओर
भ्रष्टाचार के कारण इसकी गरिमा धूमिल हो रही है। इस परिवेश में नवनियुक्त न्यायमूति एचएस
कपाड़िया ने यह कहकर कि ईमानदारी उनकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है। और उन्होंने अपना कैरियर
चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में आरंभ किया है। यह निश्चित रूप से शुभ संकेत है। लगता है कि
अब न्यायपालिका में होगी ईमानदारी की पूजा का दौर आरंभ होगा।
भ्रष्टाचार का मुख्य कारण न्याय में देरी है। यही कारण है कि वादकारियों को सुविधा शुल्क देने के
लिए विवश होना पड़ता है। इस देश में देर से निर्णय अथवा जल्दी से निर्णय के लिए भी धन खर्च
करना पड़ता है। अगर हर मुकदमें के निर्णय के लिए निर्धारित अवधि तय कर दी जाये तो निश्चित
रूप से भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है। अफसोस इस बात का है कि यहां हर फाइल वनज
से ही आगे बढ़ती है। लेकिन जब समाज के सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। तो फिर न्यायपालिका से ही ईमानदारी की क्यों उम्मीद की जाती है। इस क्षेत्र में भी समाज के लोग ही आते हैं। जब समाज ईमानदार होगा तो निश्चित रूप से हमारी न्यायपालिका को ईमानदार होने से कोई रोक नहीं सकता। न्यायपालिका से भ्रष्टाचार मिटाने से जरूरी है। पूरे समाज को उससे मुक्त किया जाए। भ्रष्टाचारविहीन समाज में ही ईमानदार न्यायपालिका पनपती है।
ईमानदार न्यायपालिका के लिए जरूरी है कि बदलते परिवेश में न्यायधीशों की आचार संहिता की
समीक्षा की जानी चाहिए। राजनैतिक दवाब में हमारी न्यायपालिका निश्चित रूप से है। वास्तविकता
यह है कि जब पूर्व न्यायधीश सांसद, विभिन्न आयोगों के चेयरमैन बनेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें
राजनैतिक लोगों से संबंध बनाने होंगे। अतः सेवानिवृत न्यायाधीशों को न तो सांसद बनाया जाना
चाहिए और न ही उन्हें किसी जांच आयोग का अध्यक्ष बनाना चाहिए। तभी हमारी न्यायपालिका
पूर्वाग्रहों से रहित और निस्वार्थ हो सकती है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए न्यायपालिका की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव होना चाहिए। वर्तमान कालेजियम से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए विशेष बोर्ड बनना चाहिए जिसमें देश के प्रधानमंत्री, लोकसभा के स्पीकर, विपक्ष के नेता तथा देश के प्रख्यात कानूनविद हों। इसी प्रकार प्रदेश के मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता,विधानसभा के स्पीकर सहित प्रमुख कानूनविद इसमें होने चाहिए जिससे न्यायपालिका निर्भीक और निष्पक्ष होकर अपने दायित्व का निर्वाह करे।
न्यायपालिका में आई गिरावट का एक कारण आये दिन अधिवक्ताओं की हड़ताल है। जिससे
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इसके कारण वादकारियों को कई समस्याओं का
सामना करना पड़ता है। इसका लाभ न्यायिक कर्मी भी उठाते हैं। मानती हैं कि न्यायपालिका में
आये दिन होने वाली हड़तालों पर रोक लगनी चाहिए। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। इससे
मुकद्मों का शीघ्र निपटारा नहीं होता। अपनी सुनवाई जल्द कराने के लिए वादकारियों को
अतिरिक्त खर्च करने के लिए विवश होना पड़ता है।
जाति आधारित जनगणना-क्या होंगे परिणाम
भारत की सामाजिक संरचना ऐसी है कि इसमें बिना जाति के रहना असंभव सा है। आदमी की पहचान ही जाति से होती है। पानी पिलाने से पहले अमुक व्यक्ति की जाति पूछी जाती है। हमारे गांव व शहर भी जातियों में बंटे हुए हैं। हर गांव में जाति विशेष की प्रचुरता होती है। कुछ गांव जाति विशेष के होते हैं। इसी प्रकार शहरों की पुरानी बस्तियां व मोहल्ले जाति आधारित हैं। अतः सरकार ने विपक्ष विशेष रूप से मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव तथा शरद यादव के कड़े प्रतिरोध के कारण जाति-आधारित जनगणना करने के आदेश जारी किए हैं। इससे पहले 1931 में जाति के आधार पर जनगणना हुई थी। उसी को आधार बनाकर हर जाति राजनीति व आरक्षण में अपनी दावेदारी प्रस्तुत करती रहीं है। अब सवाल यह है कि जनगणना प्रपत्र में ओबीसी का कॉलम बढ़ने से क्या जातिवाद मजबूत होगा अथवा इस संदर्भ में धारणाएं निराधार साबित होंगी।
जब जाति एक सच्चाई है तो फिर जाति के आधार पर जनगणना करने में बुराई क्या है ? अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों की गणना तो पहले से होती आ रही है। इस बार जनगणना में केवल अन्य पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी की भी जनगणना होगी।
जब दो वर्ष पूर्व उच्च शिक्षा में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण वैध ठहराते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के अधिकृत डाटा पर जोर दिया था। अभी सुप्रीम कोर्ट ने स्थानीय निकायों में ओबीसी आरक्षण को वैध ठहराते हुए इनकी सही संख्या पता लगाने को रेखांकित किया है। यह काम जनगणना से ही संभव है। वस्तुतः ओबीसी जाति आधारित जनगणना से सुप्रीम कोर्ट की मंशा भी पूरी होगी। इस वर्ग का सही आंकड़ा सामने आयेगा।
हमेशा से जाति आधारित जनगणना होती आई है। 1931 तक देश में ओबीसी के आरक्षण का मसला ही नहीं था। केवल दलितों को ही आरक्षण की व्यवस्था थी। उसी परम्परा के अनुसार जनगणना का काम चल रहा था। अब तक सामान्य और अनुसूचित, अनुसूचित जनजाति के आधार पर जनगणना होती थी। अब इसमें ओबीसी की भी पृथक जनगणना होगी। इससे कहां जातिवाद फैलेगा ? हम भले ही कहें कि देश में शिक्षा के प्रसार के साथ जातिवाद समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। ऐसे लोग दिवास्वप्नों में जी रहे हैं। वास्तव में जातिवाद आजादी के बाद बड़ी तेजी से बढ़ा है। सारे देश में जाति-आधारित संगठनों की बाढ़ आ गई है। वैसे भी आज के आधुनिक भारत में व्यक्ति की पहचान जाति से होती है। ओबीसी के आधार पर जनगणना से कोई जातिवाद नहीं फैलेगा। यह तो पहले ही फैला हुआ है।
जब जाति एक सच्चाई है तो फिर जाति के आधार पर जनगणना करने में बुराई क्या है ? अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों की गणना तो पहले से होती आ रही है। इस बार जनगणना में केवल अन्य पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी की भी जनगणना होगी।
जब दो वर्ष पूर्व उच्च शिक्षा में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण वैध ठहराते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के अधिकृत डाटा पर जोर दिया था। अभी सुप्रीम कोर्ट ने स्थानीय निकायों में ओबीसी आरक्षण को वैध ठहराते हुए इनकी सही संख्या पता लगाने को रेखांकित किया है। यह काम जनगणना से ही संभव है। वस्तुतः ओबीसी जाति आधारित जनगणना से सुप्रीम कोर्ट की मंशा भी पूरी होगी। इस वर्ग का सही आंकड़ा सामने आयेगा।
हमेशा से जाति आधारित जनगणना होती आई है। 1931 तक देश में ओबीसी के आरक्षण का मसला ही नहीं था। केवल दलितों को ही आरक्षण की व्यवस्था थी। उसी परम्परा के अनुसार जनगणना का काम चल रहा था। अब तक सामान्य और अनुसूचित, अनुसूचित जनजाति के आधार पर जनगणना होती थी। अब इसमें ओबीसी की भी पृथक जनगणना होगी। इससे कहां जातिवाद फैलेगा ? हम भले ही कहें कि देश में शिक्षा के प्रसार के साथ जातिवाद समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। ऐसे लोग दिवास्वप्नों में जी रहे हैं। वास्तव में जातिवाद आजादी के बाद बड़ी तेजी से बढ़ा है। सारे देश में जाति-आधारित संगठनों की बाढ़ आ गई है। वैसे भी आज के आधुनिक भारत में व्यक्ति की पहचान जाति से होती है। ओबीसी के आधार पर जनगणना से कोई जातिवाद नहीं फैलेगा। यह तो पहले ही फैला हुआ है।
शुक्रवार, 14 मई 2010
टी-20 से शर्मनाक विदाई
आखिर वहीं हुआ जिसकी आशंका थी। अपने को टी-20 क्रिकेट का शहंशाह कहने वाला भारत सेमीफायनल में भी नहीं पहुंच सका। श्रीलंका ने वेस्ट इंडीज में उसकी शर्मनाक विदाई कर दी। इस टी-20 विश्व टूर्नामेंट से यह जाहिर हो गया कि अब हमारे खिलाड़ियों में जीतने की भूख के स्थान पर धन कमाने की भूख अधिक हावी हो गई है। वस्तुतः आईपीएल जैसे धनकमाऊ नौटंकी ने क्रिकेट का बहुत बड़ा नुक्सान किया है। जो बल्लेबाज आईपीएल में अपनी सफलता का परचम लहरा रहे थे। वह इस टूर्नामेंट में बुरी तरह धराशायी हो गये। आखि रवह खेलते भी क्यों ? न तो वहां आईपीएल जैसा अनाप-शनाप पैसा था और न ही उफनता ग्लैमर। रही देश के लिए खेलने की बात तो वह तो कब की काल-कवलित हो गई है। सचिन जैसे लीजेंड खिलाड़ी का इस टूर्नांमेंट में न खेलना आखिर क्या साबित करता है ? उनके पास अपनी नीलामी का समय है। बेतहाशा पैसों के लिए आईपीएल की टीमों में शामिल होने तथा अपना जौहर दिखाने का समय है। लेकिन विश्व टूर्नांमेंट जहां देश की इज्जत दांव पर लगी हो। वहां जाकर न खेलना क्या साबित करता है। क्या क्रिकेटरों के लिए पैसा ही सब कुछ हो गया है। अगर पैसा ही सब कुछ है और देश का सम्मान उनके लिए कुछ भी नहीं है तो देश उनकी परवाह क्यों करता है। क्यों उन्हें खेल पुरस्कार देता है ? क्यों उन्हें पद्मश्री (जिसे लेने की भी उन्हें फुरसत नहीं होती) देता है। अब समय आ गया है कि क्रिकेट प्रेमी इस तथ्य का समझें कि केवल पैसों की खातिर खेलने वाले इन भगवानों की नीयत का सही मूल्यांकन करें। उनके पीछे पागल न बनें। बीसीसीआई से इस मामले में किसी भी तरह की उम्मीद करना बेकार है। क्या वह यह शर्त नहीं लगा सकती थी कि आईपीएल में खेलने वाले क्रिकेटरों को वर्ल्ड टी-20 टूर्नामेंट में खेलना होगा। लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी क्योंकि आईपीएल भी तो उसकी ही धनकमाऊ फर्म है। वैसे हमारे जो क्रिकेटर्स खेल रहे थे। वह आईपीएल के लगातार होने वाले मैचों के कारण काफी थके हुए थे। थकान उन्हें केवल खेल से ही नहीं अपितु मैेच के बाद डांस और पीने की पार्टी से हुई। फिर उनका अधिकांश समय विज्ञापन करने तथा अन्य प्रोफेशनल कार्यो में जाया होता था। हालांकि बीसीसीआई स्वायत्तशासी संगठन है लेकिन इस वजह से खेल मंत्रालय को चुप नहीं बैठना चाहिए। उसे क्रिकेटर्स के बारे में उचित दिशा निर्देश देने चाहिए। खेल को खेल रहना चाहिए न कि व्यापार बनाना चाहिए। देश खिलाड़ियों की पूजा उनके खेल के कारण करता है लेकिन जब खिलाड़ी खेल के स्थान पर अपनी कमाई पर अधिक ध्यान देंगे तो उनके प्रशंसकों को भी सोचना होगा।
गुरुवार, 13 मई 2010
अखिल भारतीय कवि सम्मलेन और डाक्टर राय तथा डाक्टर परिहार का सम्मान
अखिल भारतीय कवि सम्मलेन और डाक्टर राय एवंडाक्टर परिहार का सम्मान
आगरा ही नहीं हिंदी जगत की प्रतिष्ठित संस्था आनंद मंगलम सा तत्वावधान में १४ मई २०१० को माथुर वैश्य सभा भवन आगरा पर अखिल भारतीय कवि सम्मलेन और डाक्टर राय एवं डाक्टर व डाक्टर रंजन, परिहार का सम्मान किया जायेगा। यह जानकारी संस्था के अध्यक्ष मशहूर गीतकार शिव सागर ने दी। डाक्टर राय देश के प्रख्यात पत्रकार के साथ चिंतनशील रचनाकार भी हैं। उनका ब्लॉग बात-बेबात काफी लोकप्रिय है। डाक्टर परिहार कवि, लेखक और प्रखर पत्रकार हैं। इस कार्यक्रम के सभापति पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान होंगे। कवि सम्मलेन में हिंदी के राष्ट्रिय कवि सम्मानित होने वाले रचनाकार भी काव्यपाठ करेंगे.
आगरा ही नहीं हिंदी जगत की प्रतिष्ठित संस्था आनंद मंगलम सा तत्वावधान में १४ मई २०१० को माथुर वैश्य सभा भवन आगरा पर अखिल भारतीय कवि सम्मलेन और डाक्टर राय एवं डाक्टर व डाक्टर रंजन, परिहार का सम्मान किया जायेगा। यह जानकारी संस्था के अध्यक्ष मशहूर गीतकार शिव सागर ने दी। डाक्टर राय देश के प्रख्यात पत्रकार के साथ चिंतनशील रचनाकार भी हैं। उनका ब्लॉग बात-बेबात काफी लोकप्रिय है। डाक्टर परिहार कवि, लेखक और प्रखर पत्रकार हैं। इस कार्यक्रम के सभापति पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान होंगे। कवि सम्मलेन में हिंदी के राष्ट्रिय कवि सम्मानित होने वाले रचनाकार भी काव्यपाठ करेंगे.
शनिवार, 1 मई 2010
डा. एम.एस. परिहार के दो समसामयिक गीत
एक और संग्राम
आजादी है अभी अधूरी
पाये न जनता रोटी पूरी।
तंत्र लोक से दूर हुआ है
अवमूल्यन भरपूर हुआ है।।
आज देश टुकड़ो में बंटता जीना हुआ हराम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
सपनों की लाशें आवारा
बेबस का है नहीं गुजारा।
माली ने गुलशन मसला है
गांधी का भारत कुचला है।।
है मसजिद में मौन रहीमा और मंदिर में राम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
देहों का व्यापार हो रहा
सदियों का आधार खो रहा।
मजहब ज़हर उगलते सारे
लगते हैं नफ़रत के नारे।।
ओ! सुभाष के यौवन जागो जाये हो न बुरा परिणाम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
वन्दे मातरम् के जनगण हम
इस माटी के कण-कण में हम।
अमर जवान न सो पायेगा
देश धर्म पर मिट जायेगा।।
तम सूरज को नहीं खा सके और सिंदूरी शाम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
कफन बांध लो
सदियों से सोयी जनता को आज जगाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
राज राज्य के शब्दजाल से
कब तक तुम भरमाओगे।
अपनी कुर्सी की खातिर
कब तक हमको मरवाओगे।।
निर्बल के बलराम कहां हो
कहां छिपे द्वोपदी के वीर।
लूट लूटकर मेरी माटी
तुम्हीं बनाते रहे फकीर।।
शोषण के इस अंधकार में दीप जलाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
बोते रहे हमेशा नफरत
और अशिक्षा का साम्राज्य।
टूटा आज न्याय का घंटा
फैल गया भ्रष्टों का राज।।
मसली कलियां इस डाली की
फूलों का जीवन नीलाम।
पांखड़ों का गले लगाकर
किया सत्य का काम तमाम।।
सावधान ऊंची मीनारो, मैं तुम्हे बताने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
सब हाथों को काम मिले
और धरती की प्यास बुझे।
घर-घर में उजियारा करदे
बस तेरी है आस मुझे।।
आज मिटादे तू शोषक को
लेकर नाम भवानी का।
परिवर्तन का बिगुल बजादे
ये ही काम जवानी का।।
कफन बांध लो अपने सिर पै, मैं भगत बनाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
48 विनय नगर, शाहगंज आगरा-२८२०१०
संपर्कः 0562-2276358, ९४११४०४४४०
आजादी है अभी अधूरी
पाये न जनता रोटी पूरी।
तंत्र लोक से दूर हुआ है
अवमूल्यन भरपूर हुआ है।।
आज देश टुकड़ो में बंटता जीना हुआ हराम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
सपनों की लाशें आवारा
बेबस का है नहीं गुजारा।
माली ने गुलशन मसला है
गांधी का भारत कुचला है।।
है मसजिद में मौन रहीमा और मंदिर में राम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
देहों का व्यापार हो रहा
सदियों का आधार खो रहा।
मजहब ज़हर उगलते सारे
लगते हैं नफ़रत के नारे।।
ओ! सुभाष के यौवन जागो जाये हो न बुरा परिणाम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
वन्दे मातरम् के जनगण हम
इस माटी के कण-कण में हम।
अमर जवान न सो पायेगा
देश धर्म पर मिट जायेगा।।
तम सूरज को नहीं खा सके और सिंदूरी शाम।
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम।।
कफन बांध लो
सदियों से सोयी जनता को आज जगाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
राज राज्य के शब्दजाल से
कब तक तुम भरमाओगे।
अपनी कुर्सी की खातिर
कब तक हमको मरवाओगे।।
निर्बल के बलराम कहां हो
कहां छिपे द्वोपदी के वीर।
लूट लूटकर मेरी माटी
तुम्हीं बनाते रहे फकीर।।
शोषण के इस अंधकार में दीप जलाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
बोते रहे हमेशा नफरत
और अशिक्षा का साम्राज्य।
टूटा आज न्याय का घंटा
फैल गया भ्रष्टों का राज।।
मसली कलियां इस डाली की
फूलों का जीवन नीलाम।
पांखड़ों का गले लगाकर
किया सत्य का काम तमाम।।
सावधान ऊंची मीनारो, मैं तुम्हे बताने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
सब हाथों को काम मिले
और धरती की प्यास बुझे।
घर-घर में उजियारा करदे
बस तेरी है आस मुझे।।
आज मिटादे तू शोषक को
लेकर नाम भवानी का।
परिवर्तन का बिगुल बजादे
ये ही काम जवानी का।।
कफन बांध लो अपने सिर पै, मैं भगत बनाने आया हूं।
मैं शांति का नहीं क्रान्तिका बिगुल बजाने आया हूं।।
48 विनय नगर, शाहगंज आगरा-२८२०१०
संपर्कः 0562-2276358, ९४११४०४४४०
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