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सोमवार, 28 जून 2010

क्यों धारहीन है कलम और केमरा

अभी हंस के संपादक और चिन्तक राजेंद्र यादव ने इलेक्ट्रोनिक मीडिया कीविश्वश्नियता पर सवाल खड़ा किया है। राजधानी के कुछ मीडियाकर्मी काफी पैसेवाले हो गए। कुछ ने तो आपने चैनल खोल लिए। इस देश में केवल नेता औरअधिकारी ही नहीं लोकतंत्र का कथित चौथा स्तम्भ भी भ्रष्टाचार से दूर नहीं है।मीडिया अथवा पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। लेकिनवर्त्तमान परिदृश्य में वह अपनी दिशा खोता जा रहा है। पत्रकारिता का मतलबकेवल समाचार देना ही नहीं होता अपितु समाज को जाग्रत करना तथा मार्गदर्शनदेना भी होता है। देश की मीडिया को इस बात से कोई मतलब नहीं है की महंगाईक्यों बढ़ रही है और कौन इसके लिए जिम्मेदार हैं। महिला आरक्षण के मामले मेंभी मीडिया एकपक्षीय रवैया अपना रहा है। अभी इंडिया टुडे में प्रकाशित तवलीनसिंह के आलेख में स्पष्ट है कि हमारी राजनीति और मीडिया महिलाओं के प्रतिकितनी संवेदनशील है। पंचायती व्यवस्था में हजारों ग्राम प्रधान, पार्षद, पञ्च, सभासद, जिला पंचायत सदस्य, ब्लाक सदस्य केवल नाम के लिए महिलाएं हैं औरउनके पद का दुरूपयोग उनके पति, भाई, ससुर, बेटे तथा पुरुष मित्र कर रहें हैं।क्या मीडिया बता सकता है कि उसने इन पदों का दुरूपयोग करने वाले कितनेपतियों, भाइयों तथा बेटों के खिलाफ समाचार प्रकाशित अथवा प्रसारित किया।क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है? स्वस्थ्य के नाम पर जनता को लूटा जारहा है। शिक्षा दुकानों में बदलती जा रही है। महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयभ्रष्टाचार के अड्डे बनाते जा रहें हैं। और तो और मीडिया संस्थानों में भी भूमाफिया, तस्कर, दलालों तथा अवैध धंधों में लिप्त लोग अपना दखल बढ़ाते जा रहें हैं।पत्रकारिता के नाम पर उगाही हो रही है। इस सबके पीछे एकमात्र कारण यह है किपत्रकार ने लिखना और पढना छोड़ दिया है। उसे तो सामाजिक सरोकारों सेमतलब है और ही देश की भलाई से। क्या मीडिया को यह पता नहीं है कि एकभूमाफिया अचानक कैसे समाज का सम्मानित आदमी बन गया? एक अदना सानेता कैसे करोड़ों से खेल रहा है? कैसे वजीफा के नाम पर सरकारी धन की लूट होरही है? किस प्रकार सरकारी ज़मीनों पर मंदिर और मजारों के नाम पर कब्जे होगए? किस तरह शहर का माना हुआ गुंडा विधायक और संसद बन गया? गरीबों केराशन को पचा कर कैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित आदमी बन गए? सरकारी धन सेबनने वाली ईमारत और सड़क कैसे इतनी ज़ल्दी जर्जर हो जाती है? संसद औरविधायक निधि का पैसा कैसे स्कूल और कालेज रुपी निजी दुकानों में मोटी रिश्वतदेकर पचाया जा रहा है? अफसोस तो इस बात का है कि मीडिया लोगों को जागरूककरने के स्थान पर अन्धविश्वासी बना रहा है। कीर्तन और भजन तथा भविष्य फलके नाम पर अज्ञानता की और धकेल रहा है। इसीलिए अभी भी समय है की मीडियाअपनी असली भूमिका के बारे में आत्मचिंतन करे, अपने दायित्व को पहचानेअन्यथा उसकी गिरती विश्वसनीयता उसे गर्त में पहुंचा देगी.

किस कोठे पर हो ?



बड़ा अटपटा लग रहो होगा आपको यह शीर्षक। आप अपने मन में सोच रहे होंगे कि किसी वेश्यागामी अथवा वेश्या के बारे में यह प्रश्न किया जा रहा है। लेकिन आज की सच्चाई है कि हम कितने संवेदनशून्य हो गए हैं कि हमें हर आदमी कि पहचान कोठे से करने कि आदत पड़ गई है।
यह हालत हैं आगरा के पत्रकारिता जगत की । कभी आपने उत्कर्ष पर इठलाता यह शहर अब अपनी बेवशी पर आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ करने में अपने को असमर्थ पा रहा है। एक पत्रकार मित्र जो काफी अरसे तक समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण स्थानों पर रहे लेकिन आज के कुत्सित प्रतिस्पर्धा और गुटबंदी के कारण फिलहाल किसी अख़बार में सेवारत नहीं हैं। यह दर्द उनका ही नहीं तमाम पत्रकारों का है जो संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं।
काफी संवेदनशील इस पत्रकार को इस बात का मलाल है कि पहले जो लोग उनको अपना आराध्य समझते थे। कहीं भी मिल जाएँ तो उनको प्रणाम करना अपना धर्म समझते थे। अख़बारों से विरत होने पर गधे के सर से सींग कि तरह गायब हो गए हैं। यह लोग प्रयास करते हैं कि भूले-भटके भी उनसे इनका आमना-सामना न हो। आखिर बाजारवाद और भौतिकवाद का यही तो जहर समूचे समाज की शिरायों में प्रवाहित हो रहा है कि जो अनुपयोगी है। उसे लिफ्ट मत दो। यानी यूज एंड थ्रो ही तो आज कि कटु सच्चाई है।
वह कहते हैं कि कभी अकस्मात ऐसे लोग मिल भी जाएँ तो इन लोगों का पहला प्रश्न होता है कि गुरु आजकल कहाँ हो ? अर्थात किस कोठे की वेश्या हो। क्या अख़बार की नौकरी के अलावा पत्रकारिता नहीं हो सकती ? क्या पत्रकार बनने के लिए किसी अख़बार में सेवा करना ज़रूरी है ? ऐसे प्रश्न संवेदनशील लोगों को उद्वेलित कर देते हैं।
ऐसे ही एक पत्रकार जिनका इस क्षेत्र में दशकों का तजुर्बा रहा है। पहले उनके मोबाईल की घंटी हर समय निरंतर बजती रहती थी। अब लगता है कि वह घंटी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई कि तरह मौन हो गई है। कई समाजसेवी तथा राजनैतिक लोगों के अपकर्ष व् उत्कर्ष के साक्षी रहे इस पत्रकार को भी यही शिकायत है। पहले जो लोग गर्मजोशी से मिलते थे लेकिन अब मिलने से कतराते हैं। वाह रे आगरा और अजाब तेरी दास्ताँ ।

कौन देगा इन सवालों का जवाब

इस समय देश संक्रमण काल से गुजर रहा है। समस्याओं से जूझता देश किस प्रकार अपना चहुमुखी विकास कर पाएगा। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है। केवल गाल बजा देने से काम नहीं चलेगा कि शेयर मार्केट ऊंचाइयों पर है और हमने अपनी विकास दर में आशातीत वृद्धि की है। वास्तविकता यह है कि कमर तोड़ मंहगाई के कारण देश की अधिकांश आबादी भुखमरी का शिकार हो रही है।
ऐसा नहीं कि हम मंहगाई रोक नहीं सकते ? मूल्यों पर नियंत्रण नहीं कर सकते ? मुनाफाखोरी पर लगाम नहीं लगा सकते ? सच्चाई यह है कि हमारे शासन और प्रशासन में ऐसे लोगों का वर्चस्व है जिनका कभी आटे-दाल के भाव से पाला नहीं पड़ा। पड़ा होगा कभी लेकिन अब तो इन्होंने इतनी अकूत धन संचय कर रखा है कि मंहगाई का प्रश्न उन्हें बेतुका और अवांछनीय लगता है।
बड़े जोर-शोर के मध्य न्यूयार्क में गत वर्ष विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ। जैसा कि हमेशा से होता आया है कि हिंदी के कथित मठाधीश और उनकी भजन-मंडली के लोग हिंदी के बहाने विदेश की सैर कर आए। हिंदी बेचारी अपनी बेइज्जती पर आंसू भी नहीं बहा पाई।
सवाल यह है कि न्यूयार्क में अगर हिंदी विश्व भाषा बन जाए लेकिन देश में हम इस भाषा को समूल नष्ट करने पर उतारू हैं। हमने अपने बच्चों को हिंदी स्कूलों में पढ़ाना बंद कर दिया है। भारतीय पोशाक को तिलांजलि दे दी। परम्परागत रीति-रिवाजों को दफन कर दिया। संयुक्त परिवार के सुदृढ़ ढांचे को अपने स्वार्थ के कारण तहस-नहस कर दिया। कितने अफसोस की बात है कि अपने देश में तो हम हिंदी को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहे हैं और विदेश में बेशर्मी के साथ इस भाषा को विश्व भाषा बनाने की बात करते हैं।
यह बड़े गर्व और गौरव की बात है कि देश के सर्वोच्च पद पर पहली बार महिला को अवसर मिला है। सारे देश को उनसे काफी उम्मीदें हैं कि वह देश की समस्याओं के प्रति सकारात्मक रुख अपनाते हुए अपने को राष्ट्र के पति के रूप में नहीं अपितु राष्ट्र सेवक के रूप में निरूपित करेंगी। वैसे राष्ट्रपति पद की कुछ अपवादों को छोड़कर गौरवशाली परंपरा रही है। वह अपने नैतिक बल और प्रखर विवेक से देश को नई संजीवनी दे सकती है।
विगत वर्ष आस्ट्रेलिया में डा. हनीफ की गिरफ्तारी के बाद यह साफ हो गया है कि विदेश में आपको अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता। आप भले ही अपनी प्रतिभा, कौशल व कार्यकुशलता की डींग मारते रहें लेकिन उनकी निगाह में हमारी औकात दो कौड़ी की है। इस बात को राजी-गैर राजी स्वीकार करना होगा।
इस अपमान और बेइज्जती के लिए हमारी मानसिकता दोषी हैं हम दिन रात विदेश के सपने देखते हैं। हनीमून मनाने का सपना हमारे युवा विदेश का ही देखते हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ नौकरी भी हमारे लिए विदेश स्वर्ग की आभा बिखेरता प्रतीत होता है। अब सच्चाई सामने आ गई है कि वहां डाक्टर व इंजीनियरों को कितनी जलालत के साथ रहना पड़ रहा है। केवल दौलत की हवस के कारण लोग विदेशियों के जूते खाना मंजूर कर रहे हैं। इसके लिए दोषी कौन है ?
हमें इस विषय पर विचार करना होगा कि क्या हम पैसे के लिए ही जिंदा हैं ? हमारा सम्मान, सवाभिमान और गौरव क्या चंद टुकड़ों में नीलाम होगा ? डा- हनीफ जैसे लोग केवल धन कमाने के लिए विदेश गए हैं। इन जैसों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने से काम चलने वाला नहीं है। अगर इतनी बेइज्जती के बाद हनीफ में थोड़ी सी गैरत होती तो वह विदेशी नौकरी को लात मारकर देश के गरीब और बेसहाराओं को चिकित्सा सेवाएं देते। क्या देश इन डाक्टर व इंजीनियरों को इतना वेतन नहीं दे जाएगा जिससे उनकी रोजी-रोटी चले। लेकिन केवल रोटी से काम चलने वाला नहीं है। उन्हें लाखों-करोड़ों का बैंक बैलेंस बनाना है। विलासिता के सभी साधनों का उपयोग करना है। देशवासियों पर अपने धन और एनआईआई का रौब झाड़ना है।
स्पष्ट है कि विदेशों में प्रतिभा पलायन नहीं हो रहा बल्कि ऐसे लोगों के जीवन का एकमात्र मकसद पैसा कमाना ही रह गया है। जब आपका मकसद पैसा कमाना ही है तो इसके लिए आपको मान7अपमान की चिंता नहीं करनी होगी। माल आप कमा रहे हो और गरीब देशवासी तुम्हारे लिए बवाल करें ? यह स्थिति अधिक दिन चलने वाली नहीं है।
इस समय प्रदेश् में शिक्षा माफिया की नींद हराम है। मामूली स्तर के लोग स्कूल के नाम पर छात्रवृत्तियां पचाते रहे और सांसद और विधायक निधि से संपन्न लोगों की श्रेणी में आ गए हैं। कभी शिक्षा के क्षेत्र में दानवीर और समाजसेवी आते थे। उनका उद्देश्य लोगों में ज्ञान के प्रकाश को फैलाना था। लेकिन अब इस क्षेत्र में धूर्त, लम्पट और भ्रष्ट लोगों की भरमार है।
यह लोग इतने ताकतवर हो गए हैं कि किसी भी ईमानदार अधिकारी के खिलाफ फर्जी शिकायतें करवा कर उसका स्थानांतरण करवा देते हैं। अफसोस! अपने को जनसेवक कहने वाले सांसद-विधायक ही इन लोगों की पैरवी में सबसे आगे खड़ा होते हैं। मुख्यमंत्री को शिक्षा क्षेत्र से भ्रष्टाचार मिटाने के साथ विधायक निधि पर भी ध्यान देना होगा। निजी शिक्षण संस्थाओं को दी गई विधायक निधि की सीबीआई से जांच कराकर शिक्षा के द्वारा करोड़पति बने लोगों को जेल का रास्ता दिखाने का अदम्य साहस दिखाना चाहिए।


रविवार, 27 जून 2010

मशहूर शायर के. के. सिंह ’मयंक’ की गजलें




जनाब के.के.सिंह मयंक देश के मशहूर शायर हैं। उनकी शायरी में जीवन के हर पलों को शब्दायित किया गया है। समाज में फैली विसंगतियां, पारस्परिक भाईचारा, शांति और अहिंसा की झलक उनके कलामों में साफ दिखाई पड़ती है। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक दीवान भी साया हो चुका है। वह वर्तमान में लखनऊ के विकास खंड, गोमती नगर में निवास कर रहे हैं। उनका संपर्क दूरभाष है ९४१५४१८५६९

छुपाये हम इसे कब हैसियत इतनी हमारी है
कि मां के दूध का ये कर्ज हर कर्जे पै भारी है।।

हकीकत मां की ममता की बयां की है फरिश्तों ने

पयम्बर हो कि वो अवतार हो, मां का पुजारी है।।
अगर जीते जी जन्नत चाहिए, मां के कदम चूमों

यही खुशियां तुम्हारी हैं वही जन्नत तुम्हारी है।।

बहुत रिश्तें है कहने के लिए यू तो जमाने में

मगर जो रिश्ता मां का है हरिक रिश्ते पै भारी है।।
क्यू ऐसी मां की ममता को भला कैसे भुला देगा

कि जिसने तेरी खातिर हर जगह झोली पसारी है।।

जन्म से सूखे बिस्तर पर सुलाया है तुझे मां ने

मगर गीले में सोकर उसने हर शब गुजारी है।।

वो मंदिर और शिवाले में चढ़ावा क्यों चादायेगा

कि मन मंदिर में जिसने आरती मां की उतारी है।।

किसी की कोई भी अब बददुआ लगती नहीं मुझको

मेरी मां ने नजर जबसे मेरी आकर उतारी है।।

जमाने को पसंद आए न आए क्या गरज हमको

हमारी हर अदा लेकिन हमारी मां को प्यारी है।।

सवारी और सवार आनंद दोनों ही उठाते हैं

कि मां की पीठ पर अगर बच्चा करता सवारी है।।

मयस्सकर जिसको ममता का न हो आंचल वो क्या जाने

कि दुनिया भर के गम की धूप इस आंचल से हारी है।।

तू दुख देकर उसे जन्नत तो क्या दोजख ही पायेगा

कि जिस माता ने तेरी, फर्श पै हस्ती उतारी है।।

वसीयत में मयंक अब और तुमको चाहिए भी क्या

तेरे हिस्से में बूढ़ी मां की गर तीमारदारी है ।


वो दिलरुबाई कर नहीं सकते


हमें मालूम है वो दिलरुबाई कर नहीं सकते

मगर फिर भी हम उनसे बेवफाई कर नहीं सकते।।

जो मुमकिन है मुनासिब है तुम्हें हम पेश कर देंगे

तुम्हारे नाम हम सारी खुदाई कर नहीं सकते।।

वो हिंदू हों कि मुसलिम हों इसी मिट्टी में जनमें हैं

वतन से बेवफाई मेरे भाई कर नहीं सकते।।

पड़ोसी हैं कभी लगजिश पै लगजिश कर भी सकता है

मगर फिर भी हम उसकी जग हंसाई कर नहीं सकते।।

खुशी के फूल उनकी जिंदगी में खिल न पायेंगे

चमन की खूनेदिल से जो सिंचाई कर नहीं सकते।।

निशाना साधकर जो दुश्मनों पर वार करते हैं

डराने के लिए फायर हवाई कर नहीं सकते।।

वे खरपतवार से फसलों को अपनी क्या बचायेंगे

समय रहते जो खेतों की निराई कर नहीं सकते।।

मयंक उस कर्ज को लेना कभी मत साहूकारों से

अदा जिस कर्ज की तुम पाई-पाई कर नहीं सकते


शनिवार, 26 जून 2010

ब्लॉग पर परिवर्तन की दस्तक

चारों ओर परिवर्तन का दौर है। हर क्षेत्र में नित्य-नूतन प्रयोग हो रहे हैं। अनुसंधान हो रहे हैं। विचारों की महत्ता बढ़ गई है। बौद्धिक संपदा प्रगति के सोपान पर है। विचारों की विविधता और परिवर्तन का दौर ब्लॉग पर भी दस्तक दे रहा है। ब्लॉगर्स दिल खोलकर विविध विषयों पर लिख रहे हैं। विचारों का बादल ब्लॉग पर अपनी दस्तक दे रहा है।

पद्मावलि ऐसा ही ब्लॉग है। जिसमें यथास्थितिवाद से उबरने की जंग है। विचारों की प्रखरता और जनापेक्षी दृष्टिकोण साफ झलकता है। प्रतापगढ़, इलाहाबाद में प्रारंभिक जीवन व शिक्षा दीक्षा के बाद गाजियाबाद में अपना आशियाना बना चुके पद्मसिंह इस ब्लॉग के ब्लॉगर हैं। उनकी चर्चित पोस्ट आस्था बनाम बाजार कुछ नये प्रश्न खड़े करती है। आस्था और श्रद्धा का जिस तरह बाजारीकरण हुआ है। वह उससे क्षुब्ध हैं। एक मंदिर अथवा मजार के साथ कई दुकानें अनायास ही उग आती हैं। आस्था बाजार में बदल गई है। वह लिखते हैं-
’’एक प्रश्न मेरे मन में उठता है कि ईश्वर ने अपनी हितसिद्धि के लिए इंसानों की रचना की है.......या इंसानों ने अपनी हितसिद्धि के लिए ईश्वर और धर्म की रचना की है’’
उनकी कविताएं भी प्रगति के नये प्रतिमान गढ़ती हैं-
जहां विवेक रूढ़ियों का दास हो
जहां आस्था का कारण त्रास हो
इस ब्लॅाग में इंडिया गेट, वोट क्लब की चित्रावली है जिसके माध्यम से बिना लिखे ब्लॉगर वहां की गंदगी और अराजकता को उजागर करता है।

पद्मसिंह.वर्डप्रेस.कॉम

सतरंगी-सतरंगी यादों का इन्द्रजाल के ब्लॉगर सुलभ जायसवाल हैं। वह अररिया (बिहार) से सम्बंध रखते हैं। इस ब्लॉग में हास्य-व्यंग्य की प्रचुरता है। नये विषयों पर प्रभावशाली ढंग से किस तरह कविता उकेरी जा सकती है। इस ब्लॉग के सहज ही देखा जा सकता है। जुनूनी ब्लॉगरों को उनके परिजन भी पसंद नहीं करते। अतः युवा ब्लॉगर को कोई भी लड़की पति के रूप में स्वीकार नहीं करती। वह अपने पिता से कहती है-
पापा मैं हूं लड़की आधुनिक दिल की खुली
ऐसे ब्लॉगर बलमा से तो मैं कुंवारी भली
सुलभ जी भोजपुरी क्षेत्र के हैं। अतः वह भोजपुरी काव्य से कैसे अलग रह सकते हें। उनके ब्लॉग पर इस भाषा की सोंधी सुगंध भी देखी जा सकती है-
देखाई कइसे जताई कइसे
हमरो अकिल बा बताई कइसे
इसके अतिरिक्त ब्लॉग में लघु कहानियां व गजल की अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।

सुलभ्पत्र.ब्लोग्पोस्त.कॉम

उद्भावना ब्लॉग के ब्लॉगर पंकज मिश्रा पत्रकार हैं। उनकी अधिकांश पोस्टों में उनका पत्रकार स्पष्ट दिखाई देता है। उनका लेखन किसी बात को सहजता से नहीं अपितु विश्लेषणात्मक शैली में प्रस्तुत करता है। व्यंग्य शैली में लिखे उनके आलेख ‘‘वे क्यों बनें प्रधानमंत्री’’ में उन्होंने राहुल गांधी का अप्रत्यक्ष रूप से सजीव स्कैच खींचा है। जब उनकी प्रधानमंत्री से अधिक साख और सम्मान है। सभी उनके दरबारी हैं तो फिर इस पद की आवश्यकता ही क्या है ? समसामयिक विषयों पर उनके आलेख जीवंतता प्रदान करते हैं। ये कैसा यंगिस्तान में क्रिकेट के बारे में समीक्षात्मक लेख है वहीं काहे की जनता जनार्दन में बेचारी जनता की बेवसी और लाचारी को प्रभावशाली तरीके से उकेरा गया है। नेट के विस्तार के बारे में ज्ञानवर्द्धक लेख इस विधा से जुड़े लोगों को बेहद पंसद आएगा।

उद्भावना.ब्लागस्पाट.com

मेरासागर ब्लॉग की ब्लॉगर प्रीति बर्थवाल हैं। दिल्ली वासी प्रीति मन के भावों को सहजता और सरलता से अपने ब्लॉग पर व्यक्त करतीं हैं। सटीक और आकर्षक चित्रों से उनका ब्लॉग मन को सहज ही आकर्षित करता है। उनकी अधिकांश पोस्टों में कविता की प्रचुरता दिखाई देती है। जिंदगी पर उनका फलसफा है-
जिंदगी चलती रही
ख्वाब कुछ बुनती रही
कुछ पलों की छांव में
अपना सफर चुनती रही
सूर्य ग्रहण के समय ज्योतिषियों की भविष्यवाणी तथा हिदायतों का तार्किक रूप् से खंडन किया है प्रीति ने। दिल के बारे में लोकप्रिय गीत- बिल्कुल सच्चा है जी, कुछ मचलता है और, कुछ फिसलता है जी, दिल तो बच्चा है जी, को चित्ताकर्षक चित्र के साथ पोस्ट किया गया है।

मेरासागर.ब्लोग्पोस्त.कॉम

शुक्रवार, 25 जून 2010

धनकुबेरों का अघोषित आरक्षण

आरक्षण वास्तव में बुरा प्रावधान है। जिससे प्रतिभाएं आहत होती हैं और अयोग्य लोगों को अवसर मिल जाता है। जिसके कारण मेधावी छात्रों में हताशा और निराशा की भावना प्रवेश कर जाती है। संभवतः यही कारण था कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की तो पूरे देश में भूचाल आ गया था। इसके काउंटर एक्शन के लिए यथास्थितिवादियों को कमंडल का सहारा लेना पड़ा था। कहा गया था कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा। मीडिया की जोरदार मुहिम के कारण यह मुद्दा जन-जन तक पहुंच गया और इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
अब सवाल यह पैदा होता है कि योग्यता की परिभाषा क्या है ? योग्यता का पैमाना केवल सरकारी नौकरियों में होना चाहिए अथवा जीवन के अन्य क्षेत्रों में। अब आप बताइए कि योग्यता और ईमानदारी कहां है ? क्या सामान्य कोटे के अधिकारी व कर्मचारी ईमानदार हैं ? क्या इस वर्ग के चिकित्सक अपने दायित्व को पूरा कर रहे हैं ? क्या शिक्षा मंदिरों में केवल योग्यता का ही बोलवाला है। ?
यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं। जिनका हल हमें खोजना होगा। आज देश की दुर्दशा हुई है उसमें अगर दलितों के अठारह फीसदी आरक्षण को छोड़ दिया जाए तो क्या बयासी फीसदी कथित मेरिटधारी लोग ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं अथवा इस वर्ग के अधिकारी, इंजीनियर व डाक्टर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं ? अगर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होते तो देश में बेतहाशा भ्रष्टाचार क्यों है ? हमारे पुल, भवन व अन्य निर्माण गुणवत्ता के अभाव में क्यों बनते ही धराशायी हो जाते हैं ?
वास्तविकता यह है कि इस देश में ओबीसी व दलित आरक्षण के समानांतर एक और आरक्षण चल रहा है। जिसकी सभी को पता हैं मीडिया भी इससे अनजान नहीं है लेकिन फिर क्यों इस आरक्षण की चर्चा नहीं होती ? क्या यह सच नहीं है कि दशकों से डाक्टर व इंजीनियर केवल पैसे के जोर पर बने हैं निजी संस्थानों में लम्बा-चौड़ा डोनेेशन देकर ? सच्चाई है कि आगरा के ही नहीं वरन देश के कई कथित योग्य चिकित्सकों के लड़के-लड़कियां निजी संस्थानों में मनमानी धनराशि चुका कर डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं।
यही स्थिति देश की उच्च शिक्षा की है। महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में क्या अघोषित आरक्षण नहीं हैं ? सच्चाई तो यह है कि लोगों का पूरा परिवार इन संस्थानों में योग्यता के कारण नहीं अपितु परिवारवाद अथवा ‘गिव एंड टेक’ के कारण काबिज हैं। इस कॉकस केे कारण सवर्ण वर्ग के योग्य लोग भी शिक्षा के उच्च संस्थानों में प्रवक्ता नहीं बन सकते। ऐसे उदाहरण विश्वविद्यालय में स्पष्ट दिखाई देते हैं। परी्रक्षाओं में सर्वाधिक अंक कैसे आते हैं। यह जानकारी सभी को है लेकिन जानकर भी अंजान बने हुए हैं।
क्या कभी इस प्रवृत्ति के खिलाफ किसी राजनेता अथवा मीडिया ने आवाज उठाई। क्या किसी ने सोचा कि अत्यंत निर्धनता में जीवन-यापन करने वाले कमजोर वर्ग क्या बिना आरक्षण के इन पूंजीपतियों की दौड़ में बराबरी कर सकता है ? इस स्थिति की अनदेखी नहीं की जा सकती।
कौन कहता है कि आरक्षण होना चाहिए ? लेकिन धन के बूते उच्च शिक्षा में प्रवेश का आरक्षण कब समाप्त होगा ? संभवतः मंहगी शिक्षा का मुख्य कारण यह भी है कि देश का योग्य व मेधावी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित रहे और थैलीशाहों व भ्रष्ट अधिकारियों के बच्चे ही उच्च शिक्षा में प्रवेश कर सकें। आइए इस अघोषित आरक्षण पर नई बहस छेड़ें।
मुंहमांगे पैसे देकर डाक्टरी व इंजीनियरिंग की डिग्री पाने वाले लोग क्या देश की ईमानदारी से सेवा कर रहे हैं ? अगर आरक्षण समाप्त करना है तो पैसे के बूते पर शिक्षा प्राप्त करने पर रोक लगे। देश में समान शिक्षा नीति घोषित हो। केवल मेरिट के आधार पर ही निजी व सरकारी संस्थानों में प्रवेश हो।
इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी अघोषित आरक्षण जारी है। मठाधीश का बेटा मठाधीश बनेगा। पुजारी का बेटा ही मंदिर का पुजारी होगा। भले ही वह भ्रष्ट, चरित्रहीन अथवा नैतिक मूल्यों की हत्या करने वाला हो। इसी प्रकार किसी कारखाने का मालिक अथवा संस्थान का मालिक पिता के बाद बेटा ही होता है। भले ही वह अयोग्य अथवा नकारा क्यों न हो ? अब हमें इन सवालों से भी रूबरू होना होगा तथा जनमत को इसके लिए तैयार करना होगा।

हाय गर्मी - तपन में झुलसता आदमी

भीषण गर्मी से लोग आकुल-व्याकुल हैं। न दिन के चैन और न रात को आराम। नींद हराम हो गई है इस भीषण गर्मी से। हर आदमी धनकुबेर तो हैं नहीं जो यूरोपीय देशों अथवा देश के ठंडे इलाकों में जाकर शीतलता से कुछ दिन बिताये। हालांकि गर्मी पहले भी पड़ती थी। लेकिन इसकी तीव्रता निरंतर बढ़ती जा रही है। न नदियों में पानी है और न छायादार पेड़। मानसून को दूर-दूर तक कोई नामोनिशां नहीं। कैसे जिंदा रहेंगे इस भीषण गमी में। यह प्रश्न मानव ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों को भी सता रहा है। आखिर क्या कारण है कि सूर्य की किरणें आग बरसा कर हमारे जनजीवन को तबाह कर रहीं हैं। कैसे मिलेगी इस भीषण तपन से निजात ?
बेतहाशा गर्मी बढ़ने का मुख्य कारण प्रदूषण है। जिस तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। उसी अनुपात में प्रदूषण अधिक फैल रहा है। यह प्रदूषण जब वायुमंडल में विचरण करता है तो सूरज की तपन को और अधिक प्रभावी कर देता है। प्रदूषण का मुख्य कारण जंगलों का कटान और कृषि भूमि का कंक्रीट के जंगलों में बदल जाना है। जनसंख्या नियंत्रण और वृक्षारोपण से ही तपन को रोका जा सकता है। सरकार और जनता को इस ओर समन्वित प्रयास करने होंगे।
हमारी आरामदायक और विलासी जीवन शैली के कारण पर्यावरण दूषित हो गया है। हम सिंथेटिक के कपड़े पहनते हैं। घरों में भी पर्दें आदि में उनका उपयोग होता है। बिना एसी और फ्रिज के हम नहीं रह सकते। जबकि इनसे निकलने वाली दूषित गैस वातावरण को दूषित कर देती है। हमारी बदलती जीवन शैली ने पर्यावरण का नाश किया है। अगर हम पुरानी जीवन शैली को अपना लें तो कुछ हद तक गर्मी की तपन से छुटकारा मिल सकता है। शहर में वाहनों का कम प्रयोग हो। एसी पर नियंत्रण हो तभी प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
बढ़ते शहरीकरण के कारण हम प्रकृति से दूर हो गये हैं। जब प्रकृति से दूर होते हैं तो हमें नाना प्रकार की परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है। जिस तेजी से खेती की भूमि आवासीय क्षेत्रों में बदल रही है। इसी कारण गर्मी के तेबर सख्त होते जा रहे हैं।’’ हरियाली के स्थान पर सपाट मैदान में गर्मी का प्रभाव अधिक रहता है। पेड़ कट जाते हैं। हरी-भरी फसलें विदा हो जातीं हैं। जो सूरज की गर्मी को सोख सकते हैं। जब वही नहीं रहे तो गर्मी की भीषणता तो बढ़ेगी ही।
सरकारी भ्रष्टाचार के कारण वातावरण को शीतल करने वाले तालाब और पोखर विलुप्त हो गये हैं। उन पर बनी विशालकाय अट्टालिकाएं किसी सरकारी अमले को नहीं दीखतीं। गांवों के पोखरों पर दबंगों ने सरकारी कर्मियों की मिली भगत से कब्जा कर लिया है। फिर तो गर्मी की तीव्रता बढ़ेगी ही। अब शहरों में पुराने ताल-तालाब और गांवों में पोखरें नहीं दिखाई देतीं। निरंतर गिरते भूगर्भ स्तर से जमीन में नमी समाप्त हो गई है। अपनी दुर्दशा के लिए हम ही दोषी हैं।
आज हमें प्रकृति के जिस कोप का भाजन बनना पड़ रहा है। उसके लिए सरकार ही नहीं अपितु हम सभी जिम्मेदार हैं। हमारे जीवन में र्प्यावरण सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है। न हम पेड़ पौधें की सोचते हैं और न ही वाहनों से निकली विषैली गैसों के दुष्प्रभाव के बारे में। इनकी अनदेखी की कीमत हम चुका रहे हैं। अगर हम पौधारोपण और उनकी देखभाल पर ध्यान दें। जल का अपव्यय कम करें तो निश्चित रूप से र्प्यावरण संतुलित होगा। परिणामस्वरूप हमें भीषण तपन से मुक्ति मिलेगी।

बिहार में सियासी घमासान


बिहार विधानसभा का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है। वहां राजनीतिक घमासान तेज हो गया है। चुनाव के समय किसी को बिहार के स्वाभिमान की याद आ रही है तो कोई जातीय समीकरणों के आधार पर सत्ता पाने के स्वप्न देख रहा है। विगत दिनों जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुजरात सरकार द्वारा कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए दी गई पांच करोड़ की सहायता राशि वापस करके एक नया मोर्चा खोल दिया है। जिस नरेन्द्र मोदी के साथ उन्होंने पंजाब में हाथ मिलाते हुए फोटो खिंचाया था। अब उसी फोटो से उन्हें एलर्जी हो रही है। उन्हें लगता है कि नरेन्द्र मोदी की छवि साम्प्रदायिक है। ऐसे में उन्हें विधानसभा चुनावों में मुस्लिमों का कोपभाजन बन सकता है। इसलिए वह अपने आक्रामक तेबरों को तार्किक आधार दे रहे हैं। उनकी यह भी मंशा है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में नरेन्द्र मोदी और वरुण गांधी प्रचार के लिए नहीं आएं। लगता है कि नितीश अब आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। वह अपने को धर्मनिरपेक्ष छवि के नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन भाजपा अध्यक्ष गड़करी ने कहा है कि उनका जदयू से गठबंधन जारी रहेगा। चुनाव अभी दूर है। उनके इस बयान को पार्टी की आखिरी लाइन नहीं समझा जाना चाहिए। हो सकता है कि आसन्न चुनाव के समय भाजपा कोई अप्रत्याशित करवट ले। इसके समानांतर लालू-पासवान की जोड़ी भी इन चुनावों में अपना कायाकल्प देख रही है। भाजपा से अलग होने पर वोटों का विभाजन होगा। वह इस बात को भी जानते हैं कि जो दल अथवा गठबंधन भाजपा को हराने में सक्षम होगा। मुस्लिमों के वोट उधर ही पड़ेंगे। जहां तक कांग्रेस का सवाल है। वह भी अपनी बैसाखी तलाश रही है। कहने को तो उनके नेता यह आलाप दोहरा रहे हैं कि कांग्रेस बिहार में अपने बूते पर लड़ेगी। लेकिन वास्तविकता और है। कांग्रेस ने लोकसभा का चुनाव अकेले लड़कर देख लिया। उसका क्या हश्र हुआ। यह उसके नेता भली-भांति जानते हैं। इसीलिए वह जदयू-भाजपा की लड़ाई को गम्भीरता स ेले रही है। राहुल गांधी भी नीतिश सरकार का गुणगान कर चुके हैं। वैसे तो जदयू -भाजपा की मजबूरी है साक्षा चुनाव लड़ने की। अगर यह संभव न हुआ तो नीतिश कांग्रेस से हाथ मिला सकते हैं। जहां तक लालू-पासवान का सवाल है। वह पूरी ताकत के साथ बिहार चुनावों में रणनीति में व्यस्त हैं। वह नीतिश को साम्प्रदायिक घोंषित करके मुस्लिमों को अपने पाले में रखना चाहते हें। वैसे भी विगत माह हुए विधानसभा उपचुनावों में लालू-पासवान गठबंधन को आशातीत सफलता मिली थी। मायावती भी बिहार में पावं जमाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। अब देखना यह है कि बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम क्या होगा ?


मंगलवार, 22 जून 2010

शब्दों की आक्रामकता

ब्लॉग दुनिया अब इतनी विस्त्रित हो गई है कि उसमें तीखे स्वर भी शब्दायित हो रहे हैं। किसी भी मुद्दे पर ब्लॉगर की सपाटबयानी से संप्रेषणीयता सहज हो रही है। शब्दों के मकड़जाल वाले ब्लाग अब कम पसंद किए जा रहे हैं। इनमें रचनाधर्मिता के साथ ही समसामयिक संदर्भों को भी प्रभावशाली तरीके से उकेरा जा रहा है। जीवन के विविध रंगों की झलक इनमें साफ देखी जा रही है। परिवर्तन के स्वर भी यदा-कदा प्रतिबिम्बित होते हैं।

महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर, ब्लाग ने अपने को राष्ट के पुनर्निर्माण को समर्पित किया है। जब राष्ट की बाद आती है तो राष्टवादी विचारधारा भी ध्वनित होती है। हिंदुत्व भी सीना तानकर सामने आता है। गांधी परिवार को इस ब्लाग ने अपने निशाने पर रखा है। भोपाल गैस त्रासदी के संदर्भ में ब्लॉगर लिखता है- ‘‘सारे चैनल और अधिकतर अखबार भी ‘बलिदानी’ परिवार का नाम सीधे तौर पर लेने से बच रहे हैं, कि कहीं उधर से मिलने वाला ‘पैसा‘ बंद हो जाये।‘‘ इससे आगे भी ब्लॉगर का आक्रोश नहीं थमता। वह आगे कहता है- ‘‘जल्दी ही एक ‘बलि का बकरा’ खोजा जाएगा। कोशिश पूरी है कि देश के सबसे पवित्र, सबसे महान, सबसे त्यागवान, सबसे बलिदानी ‘परिवार‘ को कोई आंच न आने पाये................। स्पष्ट है कि ब्लॉगर का राष्टवाद प्रखरता से बोल रहा है।

नजर नजर का फेर ब्लॉग के ब्लॉगर शिशुपाल प्रजापति हैं।इसमें ब्लॉगर की रचनाधर्मिता दिखाई देती है। इसमें अधिकांश कविताएं और गीत समाहित हैं. तीखे व्यंग्य काव्य से इस ब्लाग का पैनापन साफ परिलक्षित होता है. आज के कथित बाबाओं के नाम दोहे अधिक प्रभावित करते हैं.
बाबाजी की चेली बाबा का करती गुणगान
इंग्लिश बोले फर्राटे से प्रेस में करती मान
ब्लागर के इस नजर नजर के फेर ब्लाग पर केवल उनकी ही रचनाएं नहीं हैं, अपितु वह अन्य कवियों की रचनाओं से भी प्रभावित हैं. इसी कारण उन्होंने रूसी क्रांतिकारी कवि प्लेखानब की अनूदित कविता पोस्ट की है-
जो न हंसे उसका ले लटकाओ सूली पर
समसामयिक घटनाओं तथा सामाजिक विसंगतियों सहित भ्रष्टाचार पर भी ब्लॉग अपने पैनेपन को व्यक्त करता है.

ब्लॉगर परमजीत बाली का ब्लॉग ‘दिशाएं’ पूरी तरह काव्य-सृजन का समर्पित है. उनकी रचनाएं लघु और क्षणिकाओं के माध्यम से व्यक्त होती हैं. काव्य की भाषा सरल और सहज है जो सीधे ही मन को छू लेती हैं. अन्य ब्लॉगर की भांति उन्होंने अपने परिचय में अपना नहीं बल्कि किसी बच्चे का चित्र पोस्ट किया है. उनकी हर रचनाएं सचित्र हैं. इससे ब्लॉग आकर्षक दिखता है. अबला नारी पर उनकी क्षणिका-
अबला
जब तक तुम
अपने आपको
दूसरों के दर्पण में
देखना चाहोगी
तुम अबला ही कहलाओगी
इसके अतिरिक्त उनके ब्लॉग पर प्रेम या कर्ज, बहुत सताया गर्मी ने आदि कविताएं पोस्ट की हैं।. वह बालमन के अनुपम चितेरे जान पड़ते है. उनकी अधिकतर कविताओं को बाल-कविता की संज्ञा दी जा सकती है.

जनदुनिया एक सामूहिक ब्लॉग जान पड़ता है. यह ब्लॉग नवीनतम जानकारी, साहित्यिक रचनाओं, ज्ञानवर्द्धक तथा आर्थिक समाचारों के कारण अधिक समृद्ध है. एक प्रकार से यह संपूर्ण रचनाधर्मिता का संगम प्रतीत होता है. दिल्ली-6 का लोकप्रिय गीत गेंदा फूल के बारे में उल्लेखनीय आलेख है. इस लोकगीत को अधिक लोकप्रिय बनाया है छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘मया दे दे मयारू’ ने बनाया है. वैसे इस गीत को हबीब तनवीर के रंगमंडल ने इस तरह प्रस्तुत किया है-
सास गारी देवे,ननद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर
संइया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गौंदा फूल
रोचक सचित्र समाचार इस ब्लॉग पर अधिकतर देखे जा सकते हैं. साउथ की हीरोइन रम्भा का हनीमून, सेफ-करीना चर्चा, अमर सिंह की फिल्म आदि समाचार हैं. कुछ विशिष्ट रचनाकारों की रचनाएं भी दृष्टव्य हैं. रामावतार त्यागी की गजल उनकी याद ताजा कर जाती है-
वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है
उदासी और आंसू का स्वयंबर याद आता है

टूटते परिवार बिखरते लोग



वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष करने वाले भारत में ही कुटुम्ब यानी परिवार टूटते जा रहे हैं। भौतिकता की आंधी में हमारे सारे परम्परागत मूल्य व संस्कृति ध्वस्त होती जा रही है। घर-परिवार जिसे सुख का केन्द्र माना जाता था। वह बिखर रहा है। व्यक्तिवादी सोच के कारण मानव स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने आशियाने को ही तोड़ रहा है। ऐसे समय में जबकि पाश्चात्य् जगत परिवारों की प्रासंगिकता को समझने लगा है। हम उससे बिलग हो रहे हैं। क्या यही हमारी प्रगति का पैमाना है अथवा हमारा स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण। परिवार टूटने के कारण पति-पत्नी के विवादों की बाढ़ आ गई है। बच्चे बेलगाम हो गये हैं। क्या माता-पिता, चाचा-ताऊ, दादा-दादी अथवा भाई-बहन की प्रासंगिकता नहीं रही। इस तरह क्या हम अंधेरे कुएं की ओर तो नहीं जा रहे हैं। व्यक्तिगत इमेज, प्रतिस्पर्धा, लाइफ स्टाइल के परिवर्तन के कारण यह सब कुछ हो रहा है। पुरानी पीढ़ी वर्तमान पीढ़ी की भावनाओं की अनदेखी करती है। घोर असुरक्षा के कारण उनका परिवार से मोह भंग हो रहा है। उनपर कैरियर से लेकर मकान बनाने की जिम्मेदारी डाली जा रही है। महिलाओं को समाज और परिवार से अधिक उपेक्षा मिलती है। लोग भले आधुनिक हो जाए लेकिन अपनी संकीर्ण मानसिकता से बाहर नही आ सकते है। परिवार उन पर हर समय अहसान थोपता रहता है। व्यक्ति आधुनिक बनने की होड़ में संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। जितना वह आधुनिक बन रहा है। उतनी ही उसकी मानवीय संवेदनाए समाप्त हो रही है। आज के युवा अपने वर्तमान में अपने भविष्य में खुद को और अपने पार्टनर को सफल देखना चाहते है। अपनी जिदंगी को सुविधाजनक बनाने में वह इतने मग्न हो जाते है। कि वह भूल जाते है। कि कोई घर हैं। व्यक्तिवादी सोच के कारण वह परिवार को भूल जाते हैं। जबकि बुजुर्गो का स्नेह व नसीहत उनके भविष्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। पारिवार तोड़ने की जिम्मेदारी केवल युवाओं पर ही नहीं थोपी जा सकती। इसके लिए पुरानी पीढ़ी भी बराबर की जिम्मेदार है। वह वक्त के साथ अपने विचारों से तादात्म नहीं स्थापित कर पाते। दो पीढ़ियों की विचारधारा में टकराव से ही परिवारों में कलह पैदा होती है। अगर दोनों पीढ़ी अपने विचारों में संतुलन स्थापित करे तो निश्चित रूप से परिवारों के बिखराव को रोका जा सकता है। नये का स्वागत और पुराने का सम्मान करने से ही परिवारों में प्रेम अक्षुण्ण रह सकता है। परिवारों के टूटने का मुख्य कारण तेजी से बढ़ता औद्योगीकरण है। जब बाहर से लोग अपने रोजगार के लिए शहरों के आते हैं तो अपनी विरासत, और परम्परा को भूल जाते हैं। परिवार से दूर होने के कारण उनमें पारस्परिक स्नेह भी कम हो जाता है। वह अपने आसपास के लोगों अथवा सहकर्मियों पर अधिक निर्भर रहते हैं। आज लोगों के सामने अपने अस्तित्व को बचाये रखने की चिंता है। वह पहले अपना कैरियर बनाता है। परिवार उसके लिए प्राथमिकता के दूसरे नम्बर पर है। भौतिक युग ने मानव की सारी संवेदनाओं को निगल लिया है। वह केवल प्रगति और विकास की बात सोचता है। परिवार उसके लिए कोई महत्व नहीं रखता। जब कोई व्यक्ति सफल होता है तब वह ईश्वर और अपने परिवार को इसका श्रेय नहीं देता है। यही अहम की भावना उसे परिवार से अलग कर देती है। जब हम पर आत्म विश्वास की जगह घंमड हावी हो जाता है। तभी परिवार टूटता है। लेकिन आज आदमी को परिवार से अलग रहने की बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ रही है। वह असुरक्षित है। बच्चे बेलगाम हैं और विवाहेत्तर संबंधों को बढ़ावा मिल रहा है।

शुक्रवार, 18 जून 2010

टीवी सीरियल का जादू

आज वस्तुतः लोगों के दिल पर टीवी सीरियल का जादू चढ़ता दिखाई दे रहा है। विभिन्न चैनलों के माध्यम से कई सीरियल लोगों का मनोरंजन करने में जुटे हैं। कभी एक चैनल का ही इस पर कब्जा था लेकिन अब कई चैनल जिनमें कलर्स चैनल ने अपना जोरदारी से आगाज किया है। इसके सीरियलों ने इस विधा को नई दृष्टि और दिशा दी है। सास-बहू के झगड़े से इतर उन्होंने कई सामाजिक समस्याओं को मनोरंजनपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया है। सबटीवी के सीरियल जहां हंसी-मजाक तक सीमित हैं वहीं स्टारप्लस भी रोमानी सीरियल के साथ मानवीय मनोविज्ञान को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर रहा है। कभी जमाना था जब रामायण का सीरियल देखने के लिए पूरा शहर सन्नाटे के आगोश में समा जाता था। महाभारत सीरियल में जनता ने युद्ध-कौशल के साथ डा. राही मासूम रजा के विशुद्ध हिंदी के संवादों का आनंद लिया और उसे परवान पर पहुंचाया। सिनेमा के साथ आज भी टीवी सीरियल जनता के मनोरंजन के सशक्त साधन बने हुए हैं। अब इसमें कई प्रतियोगिताएं भी हों रहीं हैं। महुआ चैनल का भाभी नम्बर एक काफी लोकप्रिय रहा। प्रतिज्ञा, ससुराल गेंदा फूल, झांसी की रानी, काशी, देवी, दिल मिल गये, हमारी देवरानी, दो हंसों का जोड़ा आदि सीरियल्स अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

क्या बिहार में चलेगा माया का जादू

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी माया की राजनैतिक महत्वाकांक्षा सिमटने का नाम नहीं ले रही है। वह पूरे देश में अपने दल बहुजन समाज पार्टी का परचम लहराना चाहती हैं। यह दूसरील बात है कि अब तक उन्हें प्रदेश के बाहर उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है। राजस्थान, हरियाणा आदि के चुनावों के परिणामों के बाद भी वह हताश नहीं हैं अपितु पूरे जोर-शोर से बिहार विधानसभा के आगामी वर्ष होने वाले चुनावों के लिए मैदान में कूद पड़ी हैं। उनके इस निर्णय से इतना तो अवश्य लगता है कि वह केवल प्रदेश की राजनीति से संतुष्ट नहीं हैं अपितु अपने दल को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने का प्रतिबद्ध हैं। पटना के गांधी मैदान में अपनी पार्टी की रैली करके उन्होंने चुनावी बिगुल फूंक दिया है। वह इस चुनाव में अपने बूते पर ही चुनाव लड़ेंगी। उनके मैदान में कूदने से सत्तारूढ़ दल के माथे पर सिलवटें आ गईं हैं। वह जिस ब्राह्मण दलित गठजोड़ की राजनीति से उत्तर प्रदेश में शासन कर रहीं हैं। उसे वह बिहार की जमीन पर अमलीजामा पहनाना चाहतीं हैं। बिहार का सवर्ण विशेष रूप से ब्राह्मण मतदाता जदयू-भाजपा के साथ है। जदयू ने दलित और महादलित के अपने कार्ड से महादलितों को अपने पाले में खींचने की रणनीति तैयार कर ली है। लालू-पासवान का गठजोड़ भी कमजोर नहीं है। विगत वर्ष हुए उपचुनावों में लालू को जिस प्रकार सफलता प्राप्त हुई। उससे यह साफ संदेश जाता है कि बिहार की राजनीति से लालू को सहज ही खारिज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस भी अपने अस्तित्व के लिए सवर्ण और मुस्लिम वोटों पर डोरे डाल रही है। ऐसे में मायावती को किन जातीय समीकरणों से सफलता मिलेगी। भविष्य के गर्भ में है। निश्चित रूप से वह अपने उत्तर प्रदेश के शासन की उपलब्धियों के आधार पर चुनाव में उतर रहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि उनकी उपलब्धियां क्या हैं। अब न वह पहले जैसी कठोर प्रशासक है और न ही उन्होंने ऐसा कोई कार्य किया है जिसे बिहार की जनता स्वीकार कर ले। हां यह हो सकता है कि वह प्रमुख दलों के विद्रोही नेताओं को अपनी पार्टी का प्रत्याशी बनाकर उनके और अपने दलित विशेष रूप से जाटव वोटों के सहारे कुछ सीटें प्राप्त कर लें। उनका यूपी का जातीय फार्मूला फिलहाल परवान चढ़ने की स्थिति में नहीं है। वहां का चुनाव मुख्यरूप से सत्तारूढ़ गठबंधन और लालू-पासवान के मध्य होगा। कांग्रेस भी अपनी खोयी हुई जमीन पाने की कोशिश करेगी। ऐसे में मायावती बिहार में किस प्रकार अपने दल को जितातीं है। उन्होंने अपने दल के सभी सिपहसालारों को बिहार के चुनाव में परोक्ष रूप से लगा दिया है। यह तो विधानसभा का चुनाव परिणाम ही बतायेगा कि वह कितना सफल हो पातीं हैं। अगर वह कुछ सीटें प्राप्त कर लें और विधासभा त्रिशंकु हो तो उनका रास्ता आसान हो सकता है। उनकी निगाह कुछ राजनैतिक समीक्षकों के इस आकलन पर टिकी हैं कि बिहार विधानसभा त्रिशंकु होगी। अगर उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बिहार में रही और किसी गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल गया तो फिर माया को अपने गिनती के विधायकों को बचाना मुश्किल होगा। वैसे भी बसपा के विधायक सत्ताधारी दलों में शामिल हो जाते हैं। अभी हुए राज्यसभा के चुनाव में बसपा के पांचों विधायकों ने क्रास वोटिंग की हैं।

सोमवार, 14 जून 2010

बंधु आगे बढ़ता चल, सबका माल पचाता चल कवि सम्मेलन में सम्मानित हुए डा. परिहार






आगरा। साहित्यिक संस्था आनंद मंगलम् एवं हरप्रसाद व्यवहार अध्ययन संस्थान के तत्वावधान में स्थानीय माथुर वैश्य महासभा भवन में विगत रात्रि अ.भा. कवि सम्मेलन व सम्मान समारोह संपन्न हुआ। कार्यक्रम का उद्घाटन केन्द्रीय मंत्री रामजीलाल सुमन ने किया। मुख्य अतिथि सांसद डा. रामशंकर कठेरिया थे।
इस अवसर पर विचार-बिगुल ब्लॉग के ब्लॉगर, कवि तथा पत्रकार डा. महाराज सिंह परिहार, पत्रकार अमी आधार निडर, चर्चित गीतकार डा. राजकुमार रंजन आदि का शॉल ओढ़ाकर तथा श्रीफल प्रशस्ति पत्र देकर सम्मान किया गया। इस अवसर पर हुए कवि सम्मेलन का शुभारंभ व्यंजना शुक्ला की सरस्वती वंदना से हुआ। ओजस्वी कवि डा. महाराज सिंह परिहार ने प्रगति के बदलते प्रतिमानों को इस प्रकार व्यक्त कियाः-
बंधु आगे बढ़ता चल, सबका माल पचाता चल
अगर तरक्की करनी है तो टंगड़ी मार गिराता चल
सच्चाई को आग लगादे, भाईचारे को दफनादे
उन्हें डुबोकर बीच भंवर में, अपनी किश्ती पार लगादे
झूठ फरेबों की नदिया में गोते खूब लगाता चल
कर्यक्रम का संचालन करते संयोजक शिव सागर ने कहाः-
तुम मेरे साथ चलो हंसकर तो पथ सावन हो जायेगा
तुम जिस अरण्य में जाओगे वह वृन्दावन हो जायेगा
प्रो- ओमपाल सिंह निडर पूर्व सांसद, डा. राजकुमार रंजन, सुरेन्द्र दुबे, कीर्ति काले, ध्रुवेन्द्र भदौरिया, सत्येन सत्येन, सुरेश पराग, डा. राधेश्याम मिश्र, शारदा प्रसाद मिश्र आदि ने काव्य पाठ किया। इस अवसर पर पूर्व विधायक चौ. बदन सिंह, कवि अशोक सक्सैना, युवा शायर अरविन्द समीर सहित शहर के गणमान्य लोग मौजूद थे।

रविवार, 13 जून 2010

बड़ो के प्रति न्यायपालिका की नरमी

यह प्रश्न देशवासियों को निरंतर मथ रहा है कि 1984 में भोपाल में हुई भयानक त्रासदी के आरोपियों को पर्याप्त दंड नहीं मिला। यूनियन कारबाइड सयंत्र भोपाल में जहरीली गैस रिसने से 15000 लोग काल-कवलित हो गये। लगभग पांच लाख लोग प्रभावित हुए। इस मामले में माना जा रहा था कि आरोपियों को कठोर दंड मिलेगा। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। उनको मामूली दो वर्ष की सजा सुनाई गई। मुख्य आरोपी अमेरिकन वारेन एंडरसन को अछूता छोड़ दिया गया। इस निर्णय से देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। केन्द्रीय विधि मंत्री मोइली तक को कहना पड़ा कि इस निर्णय से न्याय दफन हो गया है। इसके बाद उन्होंने पलटी मारते हुए कहा कि मामले के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन के खिलाफ मामला बंद नहीं हुआ है। कानूनी दांव-पेंच चाहे जो भी हों लेकिन इतना निश्चित है कि इस देश में आम आदमी की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है। सरकार भी फैसला आने के बाद चेती है। अगर समय रहते सरकारी तंत्र सजग और चौकन्ना रहता तो निश्चित रूप से बड़ी मछलियां भी कानून के शिकंजे में होतीं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लाग पर यह लिखकर कि इस निर्णय पर देशव्यापी चर्चा होनी चाहिए। इस मामले की गंभीरता को उल्लेखित किया है। इस महत्वपूर्ण व मानवीय त्रासदी से जुड़े मामले में सीबीआई की भूमिका को सराहनीय नहीं माना जा सकता। देश की सर्वाच्च जांच एजेंसी की लचर कार्रवाई से ही आरोपी कानून की नरमी का लाभ उठा गये। अगर सीबीआई मुस्तैद रहती तो कोई कारण नहीं था कि आरोपी इतने सस्ते में छूट जाते। मुख्य आरोपी को भी दंडित होना पड़ता। बदलते परिवेश में सीबीआई की जबावदेही भी तय होनी चाहिए।
जहां एक व्यक्ति की हत्या पर फांसी हो जाती है। वहीं 15000 लोगों के हत्यारों को मामूली सजा देकर छोड़ना हमारी न्यायपालिका की अस्मिता पर सवाल खड़ा करती है। इस मामले की सभी आरोपियों को कम से कम फांसी की सजा मिलनी चाहिए। हजारों लोगों के हत्यारों का इस प्रकार मामूली सजा पाकर छूटने से ऐसे तत्वों के हौंसले बुलंद होंगे और बेचारी जनता को हाथ मलते रहना पड़ेगा। यह प्रवृत्ति समाप्त होनी चाहिए। भोपाल गैस त्रासदी में अमेरिका का प्रभाव दिखाई दिया। मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन के लिए 1989 में गैर जमानती वारंट जारी हुआ लेकिन अमेरिका सरकार ने इस आरोपी के प्रत्यर्पण से इंकार कर दिया। इस कंपनी को भी चुपचाप बिक जाने दिया गया। लगता है कि इस मामले में हमारी सरकार ने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिये। कानून भले ही आरोपियों के प्रति नरमी बरते लेकिन देश की जनता इस आरोपियों को कभी माफ नहीं करेगी। इस मामले में यदि प्रदेश सरकार प्रभावी पहल करती तो परिणाम आशानुकूल हो सकते थे। अब प्रदेश सरकार की नींद खुली है। वह आरोप लगा रही है कि केन्द्र सरकार ने इस त्रासदी को गंभीरता से नहीं लिया। अब मध्यप्रदेश सरकार की पांच सदस्यीय समिति मामले की समीक्षा करेगी। यदि समय रहते प्रदेश सरकार भी जाग्रत रहती तो आरोपी इतनी आसानी से कानून की नरमी का लाभ नहीं उठा पाते। जिस मुख्य आरोपी को गिरफतार किया गया फिर कुछ घंटे बाद छोड़ देना प्रदेश सरकार पर सवालिया निशान लगाता है। इस मामले को हल्के पन से नहीं लिया जाना चाहिए। केवल बयानबाजी से काम नहीं चलेगा अपितु अब तक हुई कमियों से सबक लेकर आगे की प्रभावशाली कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी। सरकार को भोपाल गैस त्रासदी के फैसले के खिलाफ सरकार को हाई कोर्ट में अपील करनी चाहिए तथा देश के वरिष्ठतम कानूनविदों की सलाह लेनी चाहिए। प्रभावशाली पैरवी से ही इस त्रासदी के खलनायकों पर कानून का शिकंजा कसा जा सकता है। अब इस मामले में और ढील नहीं दी जानी चाहिए।।


शनिवार, 12 जून 2010

समझ में नहीं आता द रेड साड़ी पर विवाद



स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो द्वारा सोनिया गांधी पर लिखित पुस्तक द रेड साड़ी आजकल विवादों के घेरे में है। सन् 1977 की घटनाओं के आधार पर लिखी गई यह पुस्तक स्पेन और इटली में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। अब उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है। प्रकाशन होने से पूर्व ही कांग्रेस प्रवक्ता सिंघवी ने लेखक को मानहानि का नोटिस भेजकर मुकदमा झेलने की चेतावनी दी है। जबकि इसके विपरीत लेखक का कहना है कि अब तक वह पुस्तक भारत में प्रकाशित नहीं हुई तो वह मनु सिंघवी के पास कैसे पहुंची। वह भी कांग्रेस प्रवक्ता का अदालत में घसीटने की बात कह रहीं हैं। यह मामला निरंतर जोर पकड़ता जा रहा है। इतना तो निश्चित है कि इस वाद-विवाद से इस पुस्तक की बिक्री रिकार्ड तोड़ होेगी। इस पुस्तक में सोनिया गांधी के निजी मामलों को उनकी बिना अनुमति छापने का आरोप है। हालांकि लेखक का मानना है कि उनकी इस पुस्तक के संदर्भ में कभी भी सोनिया जी से बातें नहीं हुई। वह इसे औपन्यासिक जीवनी की संबा देते हैं। उन्होंने जो भी लिखा है। वह उनके अभिन्न सहयोगियों से संवाद पर आधारित है। सवाल यह पैदा होता है कि कोई जीवनी क्या सम्बंधित व्यक्ति की बिना अनुमति के प्रकाशित की जा सकती है।
वैसे विदेशी लेखक सनसनीखेज लेखन में विश्वास करते हैं। उनका अभिमत होता है कि इस तरह की रचनाओं को बड़ी तादात में पाठक मिलते हैं और वह बेस्ट सेलेबल बन जाती है। भारतीय लेखक के विपरीत वहां के लेखक पूर्णकालिक होते हैं। उनकी रोजी-रोटी लेखन पर निर्भर है। विदेशी लेखक विवास्पद विषयों पर पुस्तक लिखकर चर्चा में आ जाते हैं। जेवियर मोरो भी इसके अपवाद नहीं हैं
आज जबकि समूचा विश्व परिवार में परिणित हो गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूलमंत्र लगभग हर लोकतांत्रिक देश ने स्वीकार कर लिया है तो फिर जेवियर मोरो की इस किताब पर इतनी हाय-तोबा क्यों ? इस सच्चाई को राजनीतिज्ञ मनु सिंघवी मानते हांेगे कि किस तरह राजनेता अपने बयानों से मुकर जाते हैं। वस्तुतः लेखन की परीक्षा उसके पाठकों से होती है। अगर यह पुस्तक तथ्यों से प्रतिकूल है तो पाठक उसे खुद ही नकार देंगे।
इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि चर्चा में आने के लिए इस प्रस्तावित पुस्तक पर वाद-विवाद हो रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता मनु सिंघवी अपनी सुप्रीमों को खुश रखने का ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए उन्होंने लेखक को नोटिस भेजा है। आज की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में न तो लेखक पीछे है और न ही राजनेता। लेेखक को किताब लोकप्रिय बनानी है और राजनेताओं को अपने आकाओं को खुश रखना है। इस मामले में भी यही साफ झलकता है।
हकीकत में राजनेताओं का कोई निजी जीवन नहीं होता। वह सार्वजनिक व्यक्तित्व होते हैं। अतः उनपर टिप्पणी करने के अधिकार से कवि अथवा लेखक को वंचित नहीं कर सकते। राजनीति को भी नेताओं का निजी व्यक्तित्व प्रभावित करता है। इस पुस्तक पर बयानबाजी राजनैतिक स्तर पर नहीं होनी चाहिए। अगर इस पुस्तक में कुछ ऐसा छपा है जिसे व्यक्तिगत माना जा रहा है तो इसमें चिंता की क्या बात है। इस निर्णय पाठकों पर छोड़ देना चाहिए।
मर्यादा के बंधन में सभी बंधे हुए हैं। लेखक को भी यह आजादी नहीं दी जानी चाहिए कि वह मर्यादा का हनन करे। किसी भी घटना या मामले को नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत करने से लेखक की गरिमा का ही ह्रास होता है। अन्य लोगों की अपेक्षा लेखक की समाज के प्रति अधिक जिम्मेदारी होती हैं। अगर इस प्रस्तावित पुस्तक में ऐसा कुछ है तो लेखक को उसमें संपादन कर लेना चाहिए। निजता की आजादी का अतिक्रमण उचित नहीं है।

कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह १४ जून को




साहित्यिक संस्था आनंद मंगलम और हर प्रसाद व्यव्हार संसथान के सयुक्त तत्वावधान में १४ जून को आगरा के माथुर वैश्य महासभा भवन पर नवल सिंह भदौरिया स्मृति कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह आयोजित किया जा रहा हैइस कार्यक्रम में पूर्व सांसद प्रोफ़ेसर पाल सिंह निडर, पत्रकार और कवि डाक्टर महाराज सिंह परिहार, गीतकार डाक्टर राज कुमार रंजन, डाक्टर कीर्ति काले, सुरेन्द्र दुबे, व्यंजना शुक्ल, डाक्टर राधे श्याम मिश्र, अमी आधार निडर आदि का सम्मान किया जायेगायह जानकारी समारोह के अध्यक्ष और संयोजक शिव सागर शर्मा ने दीस्वागत समिति में डाक्टर महेश भार्गव, पियूष भार्गव, अज्जू चौहान, राम कुमार शर्मा आदि हैंस्वागताध्यक्ष श्याम भदौरिया तथा महामंत्री सुनीत गोस्वामी हैंकार्यक्रम का उद्घाटन पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामजीलाल सुमन तथा मुख्य अतिथि आगरा के लोकसभा सदस्य डाक्टर राम शंकर कठेरिया व् विशिस्ट अतिथि संतोष कटारा और शरद भदौरिया हैंकार्यक्रम रात्रि आठ बजे आरम्भ होगा.

गुरुवार, 10 जून 2010

कठिन होगी डगर इंग्लैंड की

विलायत अर्थात् ब्रिटेन जाना उसके गुलाम रहे देशों के नागरिकों की अन्तिम और पहली इच्छा होती है कि वह वहां जाये। वहीं रहे और उनकी तरह अथाह पैसा कमाये। इसके लिए उन्हें अगर शादी का सहारा लेना पड़े तो भी कुछ गलत नहीं है। वहां का निवासी बनने के लिए इन देशों के नर-नारी ब्रिटिश नागरिकों से शादी करके वहां रहने का स्थायी बंदोवस्त कर लेते हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ शादियां वास्तव में निस्वार्थ भाव से होती हों लेकिन अधिकांश शादियों में यह मंशा साफ झलकती है कि चलो विलायत के नागरिक बन कर ऐश करेंगे। पिछले वर्ष लगभग 50 हजार भारतीय शादी करके वहां गये थे। अब शादी के नाम पर कोई वहां बस नहीं सकेगा। वस्तुतः शादी एक पवित्र रिश्ता है लेकिन जब वह व्यापार में बदल जाता हो। किसी देश को परेशान करता हो तो निश्चित है कि वह लम्बे समय तक सरकार की निगाहों से बच नहीं सकता। ब्रिटेन में बढ़ते आब्रजन को रोकने के लिए आखिर ब्रिटिश सरकार को कड़ा कदम उठाना ही पड़ा। वहां की गृहमंत्री टेरेसा ने घोषणा की है कि अब ब्रिटिश नागरिकों से शादी करने वालों को अंग्रेजी की लिखित व मौखिक परीक्षा देनी होगी। इस कड़ी परीक्षा में पास होने पर ही शादी के नाम पर वहां जाने वाले पति-पत्नियों को वहां रहने की अनुमति मिलेगी। यह परीक्षाएं हिंदुस्तान में होने वाली परीक्षाओं जैसी निश्चित रूप से नहीं होंगी। जहां ठेके पर पास होने की गारंटी है। इस परीक्षा में कामचलाऊ अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा अपितु धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने व अंग्रेजी साहित्य के जानकारी भी होनी चाहिए। ब्रिटेन सरकार के इस कदम से वहां शादियों के नाम पर होने वाला आब्रजन रुकेगा और विलायत जाने का गुलाम देशों के नागरिकों का सपना टूटेगा। वहां की सरकार का मानना है कि शादी के नाम पर उनके मुल्क में आने वालों से उनकी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उनकी सारी जिम्मेदारी सरकार की हो जाती है। वहां बढ़ते प्रवासी लोगों से ब्रिटेन के मूल निवासियों में काफी आक्रोश है जिसकी झलक एशियाई लोगों पर नस्लीय हमलों के रूप में देखी जाती है। अब भारत सहित अन्य एशियाई देशों के नागरिकों को समझ लेना चाहिए कि वहां रहने के लिए अब शादी का सहारा नहीं चलेगा अपितु उन्हें अंग्रेजी में कड़ी परीक्षा पास करके ही विलायत में रहने की अनुमति मिलेगी। इससे बहुत से युवा-युवतियों के सपने टूटेंगे। हो सकता है कि वहां आयोजित होने वाली परीक्षाओं के लिए भारत सहित अन्य देशों में मंहगे कोचिंग सेंटर न खुल जायें। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण के बावजूद हर देश के मूल नागरिक अप्रवासियों को पसंद नहीं करते और उन्हें अपने हकों पर डाका डालने वाला मानते हैं।

बुधवार, 9 जून 2010

भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी कायर


अफ़सोस की बात है की आज भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री मोती सिंह को यह बात याद आ रही है की उन्हें यूनियन कार्बाइड के चीफ वारेन एन्डरसन की ज़मानत सुनिश्चित कराने का आदेश मुख सचिव ने दिया था। उस समय अर्जुन सिंह मुख्मंत्री थे। इस तरह के बयां देने से आम जनता में यह सन्देश गया है की जिस आई ए एस की नौकरी को सर्वाधिक ताकतवर समझा जाता है। उन्हें योग्य मन जाता है। वे किस दबाव या स्वार्थवश गलत आज्ञा को मानकर अपनी नौकरी कर पेट पलते हैं। ऐसे लोगों को देश की सर्वोच्च सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं है। काश अगर वह इस जानकारी को उस समय लीक कर देते या जाँच आयोग के सामने सच्चाई बता देते तो देश का कितना भला होता j। सच बात कहने और गलत आज्ञा न मानने पर उन्हें को चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी तो कोई बना नहीं देता। ज्यादा से ज्यादा यह होता की उनका ट्रांसफर कर दिया जाता लेकिन वह जनता की निगाहों में हीरो बन जाते। यह देश के पूर्व नौकरशाहों और नेता आदि की आदत है की वे रिटायर होने के बाद बोलते हैं। वास्तव में ऐसे अधिकारीयों के खिलाफ कड़ी कार्यवाई होनी चाहिए. शर्म तो इस बात की है की जिस भोपाल गैस लीक त्रासदी में पंद्रह हजार लोग मारे गए। लाखों लोग प्रभावित हुए। उस समय जिलाधिकारी की ईमानदारी और नैतिक बोध कहाँ चला गया था। दबाव में आने वाले और गलत आज्ञा को मानने वाले ऐसे अधिकारीयों को बख्शा नहीं जाना चाहिए. जिलाधिकारी मोती सिंह को समूचे देश से अपनी अक्षमता और कायरता के लिए माफी मांगनी चाहिए.

मंगलवार, 8 जून 2010

बदलाव आयेगा उच्च शिक्षा में


विश्वविद्यालय अनुसंधान आयोग उच्च शिक्षा में हो रही निरंतर गिरावट के कारण अब उसका कायाकल्प करने में जुटा है। मद्रास विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एसपी त्यागराजन की अध्यक्षता में बनी यूजीसी कमेटी की रिपोर्ट को मानव संसाधन विकास ने स्वीकार कर लिया है। सात जून की बैठक में इसके पारित होने के बाद इसे देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में लागू कर दिया जायेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार अब उच्च शिक्षा में लगे अध्यापकों को समयमान प्रोन्नति नहीं मिलेगी अपितु उन्हें अनुसंधान कार्यों में भी अपनी उत्कृष्टता दिखानी होगी। अभी तक तो यह स्थिति है कि अगर कोई प्राध्यापक किसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गया तो वह वरिष्ठता के आधार पर प्रोफेसर बन जाता था। यही स्थिति महाविद्यालयों के अध्यापकों की है। उन्हें भी रीडर बना दिया जाता है। यह सर्वविदित है कि हमारी उच्चशिक्षा का स्तर गिरा है। उनको सरकार भारी-भरकम वेतन देती है लेकिन उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। अधिकांश अध्यापक शोध का नाम ही नहीं जानते। लेकिन अब उन्हें शोध कार्यों पर ध्यान देना होगा। उन्हें अपने रिसर्च पेपर्स रिसर्च जर्नल्स में प्रकाशित कराने होंगे। इस कदम से इन अध्यापकों में काफी बेचैनी है। अधिकांश अध्यापक अपनी जुगाड़ से विश्वविद्यालय व कालेजों में नियुक्ति पा जाते हैं। ऐसे बहुत कम शिक्षक हैं जो नेट परीक्षा पास करके शिक्षक की नौकरी में आये हैं। आज विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों का शिक्षक कोई किसी का भाई है तो कोई किसी का पुत्र। कोई किसी की पत्नी है तो कोई किसी की प्रेमिका। सब घल्लूघारा चल रहा है। उनका सारा समय नेतागीरी, चमचागीरी और जुगाड़बाजी में लगा रहता है। वह अपने संस्थान में पढ़ाने जाये या न जाये। छात्र फेल हों या पास। इससे उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। सीनियरिटी के आधार पर उनका निरंतर प्रमोशन होता रहता है। शिक्षकों के अनुसंधानपरक होने से उच्चशिक्षा का स्तर उठेगा तथा शिक्षकों की जवाबदेही तयह होगी। आज के अधिकांश शिक्षक का समय ट्यूशनखोरी, दलाली, नेतागीरी, कापी जांचने, विभिन्न कमेटियों में पद हथियाने तक सीमित है। कुछ शिक्षक तो अपने विषयों को भूल चुके हैं। वर्तमान में उच्चशिक्षा संस्थानों में अतिथि, अनुबंधित प्रवक्ता कार्य कर रहे हैं। यह सभी कुलपतियों अथवा प्राचार्य के कृपापात्र हैं और इनकी नियुक्ति बिना विज्ञापन जारी किये की गई है। कालांतर में यही रीडर और प्रोफेसर बन जायेंगे। अतः अतिथि, अनुबंधित प्रवक्ताओं की नियुक्ति पर भी कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए।

माटी के दीप-काव्य का उजाला (काव्य संग्रह)

माटी के दीप-काव्य का उजाला (काव्य संग्रह)

समीक्षकः डा. महाराज सिंह परिहार

हिंदी साहित्य के इतिहास में कविता ने ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया है। इसके माध्यम से ही हिंदी जन-जन तक पहुंची। गेयता और ध्वन्यात्मकता के कारण इसे लोगों का आत्मसात करने में परेशानी नहीं हुई। अगर तुलसी का मानस गद्य में होता, सूर का सृजन कविता के इतर होता तो निश्चित रूप से वह इतना लोकप्रिय और चिरजीवी नहीं होता। यही कारण है कि हिंदी लेखक की अपेक्षा कवि जन-जन में अधिक लोकप्रिय होता है। अतः हिंदी में काव्य-साधकों ने इसे निरंतर निखारा। नये नये बिम्ब और उपमान दिए। नया कथ्य और आयाम दिया। समीक्ष्य पुस्तक माटी के दीप ने हिंदी काव्य-धारा को नया अंदाज दिया है। कवि न तो यथास्थितिवादी है और न ही वह प्रगतिशील होने का दंभ है। वह रचनाधर्मिता के अनन्य साधक हैं जिनके लिए कविता मानवीय संवेदनाओं को जन-जन तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम है। इस पुस्तक में 59 रचनाएं समाहित हैं। विनायक वंदना से स्पष्ट होता है कि कवि आस्था और श्रद्धा से अभिभूत है। उनकी कुछ कविताएं परंपरावादी है तो कुछ में तीखे तेवर भी दृष्टिगोचर होता है। अध्यात्म भी उनकी कविताओं में यदा-कदा झलकता है। भाषा सरल व आम बोलचाल की है। आचंलिकता के पुट से यह और संपुष्ट हुई है। कवि रचनाकारों की प्रकृति को इस प्रकार उभारता है-
जब अंधकार को चीर सूर्य से धूप निकलने लगती है।
कुछ पाषाणों पर जीम हुई जब बर्फ पिघलने लगती है।।
जब धीरे-धीरे आंखों से आंसू बनकर बहता अभा।
सदियों से सूखे पत्तों में जब आग सुलगने लगती है।।
तब इंकलाब की चिनगारी धू-धू कर जलने लगती है।
तब कलमकार की कलम वहां अंगार उगलने लगती है।।
इस पुस्तक में कुछ लोकगीत भी आंचलिकता को अत्यधिक प्रभावी बनाते है। जनजीवन का सजीव चित्रण कवि के काव्य चितेरे होने का प्रमाण है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि अब कविता सिकुड़ती जा रही है। उसका प्रभाव कम हो रहा है। हां यह ठीक है कि कविता सुनी जा रही है और पढ़ी जा रही है। परंतु बदलते परिवेश में कविता जन-जन के मन को झंकृत कर पा रही है और न ही शोषक के खिलाफ एक धारदार तलवार बन पा रही है। कविता गोष्ठियों, और कमरों तक सीमित रह गई है। जरूरत है कविता को गली-गांव का बनाने की। नुक्कड़ और चौराहों का बनाने की। शोषण के खिलाफ हथियार बनाने की। सड़ी-गली व्यवस्था के खिलाफ बिगुंल बजाने की। हर बेबस और निर्दोष के आंसू को अंगार बनाने की। ऐसा होना चाहिए। परंतु आज ऐसा नहीं हो रहा है। इसके कारणों की भी रचनाकारों को जांच-पड़ताल करनी चाहिए। केवल कविता लिखना ही सब कुछ नहीं अपितु कविता को फलीभूत करना भी लक्ष्य होना चाहिए।

शुक्रवार, 4 जून 2010

श्री श्री रविशंकर पर हमला कितना सच

विगत दिनों आर्ट ऑफ लिविंग मिशन के प्रणेता रवि शंकर पर हमला हुआ। इस हमले को जहां रविशंकर ने अपने ऊपर जान से मारना करार दिया जबकि इसके विपरीत राज्य सरकार सहित गृहमंत्री चिदम्बरम ने इसे अधिक गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि इसे उनके शिष्यों का आपसी झगड़ा करार दिया। वेसे भी इस मामले में कई ऐसे पेंच हैं जिनका खुलासा होना आवश्यक है। घटना के लगभग चार घंटे बाद पुलिस को इसकी जानकारी देना अपने आप में संदेह पैदा करता है। अगर यह घटना आज से दशकों पहले हुई होती तो रविशंकर के इस बयान पर भरोसा किया जा सकता था। क्योंकि उस समय दूरसंचार के इतने अधिक साधन उपलब्ध नहीं थी। जबकि रविशंकर हाईटेक से जुड़े हैं। उनके पास दूरसंचार के अत्याधुनिक साधन हैं। वह एक मिनट में ही सारी दुनियां में अपना संदेश प्रसारित कर सकते थे। अतः इतनी देर बार पुलिस का सूचना देना समझ से बाहर है। सवाल यह पैदा होता है कि आखिर रविशंकर पर हमला हुआ तो क्यों हुआ। वह किस विचारधारा के आतंकवादियों के निशाने पर हैं। कोई उन्हें क्यों मारना चाहता है ? वह सरकार के खिलाफ क्यों बयान जारी कर रहे हैं ? उनके पास बिलम्ब से सूचना देने का कोई तार्किक उत्तर नहीं है।

अराजक तत्वों के हौंसले बुलंद
रविशंकर देश का ऐसा व्यक्तित्व है जिनके अध्यात्म और आर्ट ऑफ लिविंग मिशन का लोहा समूचा विश्व मानता है। उन पर हुआ हमला बहुत शर्मनाक है। अगर ऐसे व्यक्तित्व पर हमला हुआ तो देश में कोई भी सुरक्षित नहीं हैं। इस मामले के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए। सरकार इस मामले में चुप रही तो ऐसे अराजक तत्वों के हौंसले बुलंद हो जाएंगे।

कहां गयी रविशंकर की सुरक्षा व्यवस्था
लेकिन समय में जबकि अध्यात्म और योग विशुद्ध व्यवसाय में बदल गये हैं। धर्मगुरू अपनी सुरक्षा व्यवस्था के प्रति काफी सचेत रहते हैं। अधिकांश गुरूओं को सरकार से सुरक्षा बल दिये गये हैं। इसके बावजूद वह लोग निजी अंगरक्षक रखते हैं। जब छुटभैये गुरुओं के पास सुरक्षा की व्यवस्था होती है तो रविशंकर जैसे अध्यात्मिक गुरु की निजी सुरक्षा कहां गई। जब उन पर गोली चलाई गई।

हो सकती है आपसी प्रतिद्वंदता
अध्यात्मिक गुरु पर हमला आपसी प्रतिद्वंदता का परिणाम भी हो सकती है। देश में जितने भी अध्यात्मिक व धार्मिक गुरु हैं। वह निरंतर अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे रहते हैं। इनके आश्रम अत्याधुनिक सुविधाओं से सज्जित होते हैं। धन का बेशुमार भंडार होता है। धर्मगुरुओं की आपसी प्रतिद्वंदता का परिणाम भी हो सकता है यह हमला। इस मामले की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। साधुओं को भी ऐसी घटना से भयभीत नहीं होना चाहिए।

निर्विवाद है रविशंकर का व्यक्तित्व
अध्यात्मिक गुरूओं में रविशंकर निर्विवाद व्यक्ति हैं। उन्होंने आर्ट ऑफ लिविंग के माध्यम से शंाति का संदेश दिया है। उन पर हुआ हमला कायराना है। जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस हमले से शंाति प्रेमियों को धक्का लगा है। सरकार को उनकी सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिए। यह सौभाग्य की बात है कि इस हमले से श्री रविशंकर बच गये। उनका जीवन मानव सेवा और अहिंसा को समर्पित है।

क्यों भयभीत रहते हैं धर्मगुरु
वस्तुतः श्री रविशंकर पर हुआ कथित हमला समझ से बाहर है। हमारे गृहमंत्री स्पष्ट कर चुके हैं कि हमले का निशाना रविशंकर पर नहीं था। विचारणीय प्रश्न यह भी है कि ये अध्यात्मिक और धार्मिक गुरू भयभीत क्यों रहते हैं ? सवाल यह है कि यह लोग भयभीत क्यों रहते हैं। जब यह लोग कहते हैं कि हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ, तो फिर परेशान क्यों हैं। वास्तविकता यह है कि हमारे धर्मगुरू विलासिता का जीवन जीते हैं। इनके पास अकूत संपदा होती है। शायद इसी कारण यह भयभीत रहते हैं।

पाकिस्तान का बदलता नजरिया


पाकिस्तान के राष्टपति का मानना है कि भारत के साथ युद्ध उनके एजेंडे में कतई नहीं है। वह शंति से आपसी मतभेदों को समाप्त करना चाहते हैं। वह लोकतंत्रवादी तथा उदारवादी है। वह पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूती देने में जुटे हुए हैं। उनकी निगाह में युद्ध किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। पाकिस्तान का यह बदलता नजरिया उसके पूर्व नेताओं के एकदम विपरीत है। अधिकांश पाक सत्ताधीशों की कुर्सी भारत विरोध पर टिकी रही। लेकिन लगता है कि जरदारी ने सच्चाई को स्वीकार कर लिया है। तानाशाही और फौजी शासन की बहुत कड़ी कीमत पाकिस्तान के अवाम को भुगतनी पड़ी है। वैसे भी बदलते वैश्विक परिवेश में पाक नहीं चाहता कि वह अलग थलग पड़ा रहे। देश के चतुर्दिक विकास के लिए लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने में ही पाक की भलाई है। आतंकियों के प्रति भी पाक के नजरिये में आमूलचूल परिवर्तन इस कारण भी हुआ है कि वह खुद आतंकवाद की आग में जल रहा है। लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूती देकर ही पाकिस्तान के अस्तित्व को बचाया जा सकता है। पाकिस्तान के नेताओं की करनी-कथनी में कितना अंतर है। यह तो भविष्य ही बताएगा।

लोकतंत्र व उदारवादी चेहरा मजबूरी
पाक का लोकतंत्रवादी और उदारवादी चेहरा वस्तुत पाकिस्तान की मजबूरी है। मानसिक रूप से पाकिस्तान संभवतः अभी भी तैयार नहीं है। वहां आतंकियों की समानांतर सरकार चल रही है। बेनजीर भुट्टों का आतंकी हमले में मारा जाना इस ओर संकेत करता है कि आंतकवाद की आग में झुलस रहे पाक के सामने लोकतंत्र के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। पाक के लिए यही उचित होगा कि वह अपने यहां लोकतंत्र को मजबूत करे।

भरोसे लायक नहीं है पाक
पाकिस्तान भले ही लोकतंत्र की दुहाई दे रहा है। लेकिन उसका अतीत किसी से भी छिपा नहीं है। सत्ताधीशों ने हमेशा हमारी पीठ पर वार किया है और मुंह की खाई है। वहां की आक्रामक मानसिकता ने ही पाक में लोकतंत्र की हत्या की है। पाक को पहले भरोसा कायम करना होगा। सेना को सरकार से अलग स्वतंत्र सत्ता बनाने से रोकना होगा। तभी पाक में लोकतंात्रिक शक्तियां मजबूत हो सकती हैं।

बदल रहा है पाकिस्तान
इस सत्य से पाकिस्तान रूबरू हो चुका है कि लड़ाई किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। उसे भी भारत की भांति भूख, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी से लड़ना है। पाक की वर्तमान पीढ़ी विकास चाहती है। और विकास लोकतंत्र में ही निहित है। तानाशाही से विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है। अच्छा है कि पाक बदल रहा है। अगर पाक में लोकतांत्रिक शक्तियां मजबूत होंगी तो भारत भी चैन की सांस ले सकेगा।

खत्म होनी चाहिए आपसी नफरत
बहुत हो चुका। अब और जरूरत नहीं है भारत और पाकिस्तान को आपस में नफरत करने की। मिलजुल कर ही दोनों देश अपना विकास कर सकते हैं। यह अच्छा है कि पाक सुप्रीमों जरदारी लोकतंत्र के नये हिमायती के रूप में उभरे हैं। उन्हें अपनी करनी को यथार्थ में बदलना होगा। दोनों देशों की आपसी नफरत से काफी खून बहा है। हमें मिलजुलकर मूलभूत समस्याओं से जंग करनी है।

आतंक-खात्मे के बिना लोकतंत्र असंभव
अगर पाक को लोकतंत्र अपने यहां वास्तव में मजबूत करना है तो उसे आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष करना होगा। आतंक की जमीन पर लोकतंत्र का पौधा पनप नहीं सकता। पाक में सेना की सर्वोच्चता समाप्त करनी होगी तथा आईएसआई पर लगाम लगानी होगी। जब तक पाक में सेना मजबूत है। वहां लोकतंत्र की मजबूती असंभव है। इस सचाई से पाक सुप्रीमों जरदारी बच नहीं सकते।

ममता का परचम-कांग्रेस की विवशता


नगर निकायों के चुनाव में ममता बैनर्जी की पार्टी की भारी जीत ने उनके हौंसले बुलंद कर दिये हैं। इस जीत से आल्हादित होकर वह संप्रग सरकार को आंखे दिखा सकतीं हैं। वैसे भी ममता पर मनमोहन का कोई जोर नहीं है। वह गाहे-बगाहे उन्हें नकारती रहीं हैं। वैसे भी केन्द्रीय राजनीति ममता के एजेंडे में नहीं है। अपितु उनका असली टारगेट पश्चिम बंगाल से लाल रंग को साफ करना है। इसमें वह सफल होती दिखाई दे रहीं हैं। लोकसभा के चुनावों में भी वह अपना करिश्मा दिखा चुकी हैं। बदलते परिवेश में कांग्रेस को उनकी जरूरत है। ममता को कांग्रेस की कतई जरूरत नहीं है। नगर निकायों के चुनाव में उन्होंने अकेले लड़कर कांग्रेस को उसकी औकात दिखा दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता जनाधार वाली नेता हैं। सादगी, ईमानदारी से आपूरित उनकी राजनीति में माटी, मानुष के प्रति समर्पण स्पष्ट दिखाई देता है। अब कांग्रेस को सोचना होगा कि वह ममता को किस प्रकार अपने पाले में रखे। इस विजय से यह तो स्पष्ट हो गया कि अगर ममता संप्रग के साथ रहतीं हैं तो बंगाल के विधान सभा चुनाव में चुनावी गठबंधन ममता की शर्तों पर ही होगा। वह किसी भी कीमत पर कांग्रेस को बराबर का साझीदार नहीं बनाएंगी। पिछले घटनाक्रमों को देखें तो साफ दृष्टिगोचर होता है कि वह केन्द्रीय सरकार में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये हुए हैं। विभिन्न केन्द्रीय मामलों में उनकी साफगोई और विरोधी विचारों से सभी अवगत है। अभी विगत दिनों हुए रेल दुर्घटना में गृहमंत्री द्वारा इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग को ठुकराने से कांग्रेस और ममता के मध्य खाई और चौड़ी हो गई है। अगर उनकी लोकप्रियता का यही आलम रहा तो वह विधानसभा चुनाव में अकेले ही वाममोर्चा का सफाया कर सकतीं हैं। ममता की यह जीत कांग्रेस के लिए शुभ संदेश नहीं है। अब उसे ममता को अपने साथ बांधे रखने में बहुत कठिनाई होगी। ममता भी आत्मविश्वास से लबरेज होकर कई केन्द्रीय फैसलों पर अपनी विचारधारा थोप सकतीं हैं। उनकी बातों को नजरअंदाज करना केन्द्रीय नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा। विधानसभा चुनाव में फैसले की चाबी ममता के हाथ में है और कांग्रेस को उनका फैसला मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अगर कांग्रेस ममता से अलग होकर चुनाव लड़ी तो निश्चित है कि ममता संप्रग सरकार से अपना समर्थन वापस ले लें और मंत्रीपरिषद से बाहर आ जांये। अब कांग्रेस को अपनी सरकार चलाने के लिए मुलायम और लालू का समर्थन लेना अवश्यंभावी हो जायेगा। इसका संकेत सपा सुप्रीमों खुलेआम दे चुके हैं।

मंगलवार, 1 जून 2010

डाक्टर महाराज सिंह परिहार के दो गीत

यह गीत रामजन्म आन्दोलन के समय लिखा गया जब आगरा में धर्म के नाम पर दंगा हुआ। यहाँ की गंगा जमुनी संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया गया। आपकी भाईचारे को ध्वस्त करने का प्रयास किया गया। उस दोरान हम आगरा की शानदार विरासत भूल चुके थे।


संत नहीं कोई और हैं

आज जहरीली हवाएं बह रही चहुं ओर है।
घायल है रजनी का चंदा रोता आज चकोर है।

रंग बिरंगे फूल खिले थे
रोज दिवाली होती थी
राम राम और बालेकम से
सुबह की यात्रा होती थी
गप्पें लडती थी नलकों पर
चिड़ियाँ भी चहचहाती थी
रामू और करीम की अम्मा
आपस में बतराती थी

कुहरा छाया है नफरत का होता उन्मादी शोर है।
घायल है रजनी का चंदा रोता आज चकोर है

लीन कृष्ण के भक्तिभाव से
मंदिर में रसखान है
रामचरित का तुलसी सोता
होती आज अजान है
बहिन की खातिर लड़े हुमायूँ
यह भारत की आन है
है बलिदानी रानी झाँसी
और जफ़र की शान है

भाई भाई को लड़वाते संत नहीं कोई और है
घायल है रजनी का चंदा रोता आज चकोर है

पीकर रक्त फूल मुस्काता
राम का नाम किया बदनाम
आज सुलहकुल प्राण छोड़ता
स्वप्न नजीर के हुए नाकाम
चाकू घोपा है महलों ने
कुटिया रोती सरे बाजार
खून के आंसू मति रोटी
लाल हुई यमुना की धार

इश्वर अल्लाह के हम वन्दे फिर मन में क्यों चोर है।
घायल है रजनी का चंदा रोता आज चकोर है

प्यार लुटाया जहाँ ग़ालिब ने
सुर ने हरिगुन गया
और सैनिक की हुंकारों से
राज विदेशी भी धर्राया
अमर प्रेम की जहाँ दास्ताँ
कहता ताजमहल है
सर्व धर्म सम्भाव उदाहरण
जोधाबाई महल है

भरम तोड़ दो उन लोगों के जो अपने में मुहजोर है।
घायल है रजनी का चंदा रोता आज चकोर है


डाक्टर राम मनोहर लोहिया

आज समाजवादी आन्दोलन के मसीहा डाक्टर लोहिया का दुरूपयोग किया जा रहा है। उनके अनुयायी उनके सिद्यान्तों को भूल गए हैं। समाजवादी आन्दोलन को उन्होंने मजाक में बदल दिया है। उनकी विचारधारा की हत्या उनके अनुयायी सरेआम कर रहें हैं।


कदम कदम पर वो मुस्काता हरता सबकी पीर है.
सभी राग से ऊपर वो तो गंगाजी का नीर है।.

दिया मन्त्र उसने समता का
गूंजा हिंदी का नारा
सदियों से पिछड़े मानव का
मात्र वही था एक सहारा

देख दशा जनजीवन की वो लड़ता बांका वीर है।
सभी राग से ऊपर वो तो गंगाजी का नीर है।।

राज विदेशी के टकराया
माँ भारत का मान बढाया
गोवा को स्वाधीन कराके
ध्वज तिरंगा वहां फहराया

संस्कृति का वो सच्चा साधक एकलव्य का तीर है।
सभी राग से ऊपर वो तो गंगाजी का नीर है।.

देख दशा शोषित जनता की
उसका उर भी रोता था
भाग्य बदलने आभागों के
क्रांति मन्त्र वो बोता था

सुख सपनों को लत मरता ऐसा वो महावीर है।
सभी राग से ऊपर वो तो गंगाजी का नीर है।।

दाम बांधो और जाति तोड़ो
उसका मूलमंत्र था
सबको रोटी और झोपडी
उसका लोकतंत्र था

स्वाभिमानी सूत इस माटी का तर्कों में बलवीर है.
सभी राग से ऊपर वो तो गंगाजी का नीर है।.

डा. राजकुमार रंजन के दो गीत




हिंदी साहित्य की लोकप्रिय विधा गीत ने हमेशा से ही लोगों को आल्हादित और प्रफुल्लित किया है। इसके माध्यम से मानवीय संवेदनाएं अधिक प्रभावी ढंग से मुखर हुई हैं। गीत ही वस्तुतः साहित्य की आत्मा है। डा. राजकुंमार रंजन देश के ऐसे गीतकार हैं जो मंच और प्रकाशन के क्षेत्र में अग्रणी हैं। यहां प्रस्तुत कर रहे हैं उनके दो लोकप्रिय गीत।

हम सुमन सर्जना वाले हैं

हम सुमन सर्जना वाले हैं श्रम के कांटे रखवाले हैं।
गंधायित होते वन-उपवन हम जीवन देने वाले हैं।।

हम जब तक जीते, तीते हैं सारी पीड़ाएं पीते हैं
हम कुंठाओं से दूर-दूर हम भ्रमजालों से रीते हैं
हमने समता के बीज दिए हमने हंसने का दिया मंत्र
हम शाश्वत मूल्यों के वाहक हमने खिलने का दिया तंत्र

हम खिलते धूप-चांदनी में हम नित संघर्षों वाले हैं।
गंधायित होते वन-उपवन हम जीवन देने वाले हैं।।

हमसे वन की शोभा होती शोभा होती उपवन-उपवन
हम खिलते खेत-खेत क्या हम खिलते हैं घर-घर आंगन
हमसे पूजा के थाल सजे हम शरण रहे हैं प्रभुवर की
सीता माता के हाथ बढ़े जयमाल बने हम रघुवर की

हम प्रेम-डोर में बंधे हुए पावन प्रेमी मतवाले हैं।
गंधायित होते वन-उपवन हम जीवन देने वाले हैं।।

हम खिलते तो खिल जाय धरा हम पर न्यौछावर रहा गगन
हम कोमलता के र्प्यायी दृढ़ता से आपूरित जीवन
हम प्रेरक हैं उस जीवन के जिसमें भरपूर जवानी हो
हम प्रेरक हैं उस जीवन की जिसकी मधुमयी कहानी हो

हम हैं बंसत के आकर्षण कवि के उपमान निराले हैं।
गंधायित होते वन-उपवन हम जीवन देने वाले हैं।।

हम जो भी देते देते हैं जग से ेन कभी कुछ लेते हैं
लेना-देना जग का क्रम है हम प्रकृति-पुरुष के बेेटे हैं
हम हैं उस के महासिंधु हमज न-जन की अभिलाषा हैं
हम चिरगंधों के सागन हैं हम रंगों की परिभाषा है

रस, रूप, रंग हमसे ले लो हम दिव्य सुदर्शन वाले हैं।
गंधायित होते वन-उपवन हम जीवन देने वाले हैं।।



गीत गाने से ....................

गीत गाने से नहीं अब काम चलता।
जी चुराने से नहीं अब काम चलता।।

बहुत गाये गीत कुछ अन्तर नहीं है
हार पाये जीत कुछ गुरुतर नहीं है
अब गुजरना ही पड़ेगा सूर्य-पथ से
अब सम्हलना ही पड़ेगा कर खड्ग ले

शर पुराने से नहीं अब काम चलता।
गीत गाने से नहीं अब काम चलता।।

कुछ लगा कर आग कोसों दूर भागे
ऐंठ अपना भाग मद में चूर भागे
श्रोक देना ही पड़ेगा स्वार्थ-रथ को
धर जकड़ना ही पड़ेगा रक्त-ध्वज को

अश्रु ढाने से नहीं अब काम चलता।
गीत गाने से नहीं अब काम चलता।।

मौन कब तक जी सकोगे यह बता दो ?
रैन कब तक पी सकोगे यह सुना दो ?
अब प्रलय की रश्मि को लाना पड़ेगा
क्रूरतम वीभत्स को जाना पड़ेगा

तिलमिलाने से नहीं अब काम चलता।
गीत गाने से नहीं अब काम चलता।।

लोग सपनों की नई दुनिया बसाते
पर सृजन के नाम कोसों दूर जाते
सत्य है यह व्याल घर में ही पले हैं
मुख कुचल दो ऐंठ कर लगते भले हैं

पय पिलाने से नहीं अब काम चलता।
गीत गाने से नहीं अब काम चलता।।