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मंगलवार, 22 जून 2010

टूटते परिवार बिखरते लोग



वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष करने वाले भारत में ही कुटुम्ब यानी परिवार टूटते जा रहे हैं। भौतिकता की आंधी में हमारे सारे परम्परागत मूल्य व संस्कृति ध्वस्त होती जा रही है। घर-परिवार जिसे सुख का केन्द्र माना जाता था। वह बिखर रहा है। व्यक्तिवादी सोच के कारण मानव स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने आशियाने को ही तोड़ रहा है। ऐसे समय में जबकि पाश्चात्य् जगत परिवारों की प्रासंगिकता को समझने लगा है। हम उससे बिलग हो रहे हैं। क्या यही हमारी प्रगति का पैमाना है अथवा हमारा स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण। परिवार टूटने के कारण पति-पत्नी के विवादों की बाढ़ आ गई है। बच्चे बेलगाम हो गये हैं। क्या माता-पिता, चाचा-ताऊ, दादा-दादी अथवा भाई-बहन की प्रासंगिकता नहीं रही। इस तरह क्या हम अंधेरे कुएं की ओर तो नहीं जा रहे हैं। व्यक्तिगत इमेज, प्रतिस्पर्धा, लाइफ स्टाइल के परिवर्तन के कारण यह सब कुछ हो रहा है। पुरानी पीढ़ी वर्तमान पीढ़ी की भावनाओं की अनदेखी करती है। घोर असुरक्षा के कारण उनका परिवार से मोह भंग हो रहा है। उनपर कैरियर से लेकर मकान बनाने की जिम्मेदारी डाली जा रही है। महिलाओं को समाज और परिवार से अधिक उपेक्षा मिलती है। लोग भले आधुनिक हो जाए लेकिन अपनी संकीर्ण मानसिकता से बाहर नही आ सकते है। परिवार उन पर हर समय अहसान थोपता रहता है। व्यक्ति आधुनिक बनने की होड़ में संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। जितना वह आधुनिक बन रहा है। उतनी ही उसकी मानवीय संवेदनाए समाप्त हो रही है। आज के युवा अपने वर्तमान में अपने भविष्य में खुद को और अपने पार्टनर को सफल देखना चाहते है। अपनी जिदंगी को सुविधाजनक बनाने में वह इतने मग्न हो जाते है। कि वह भूल जाते है। कि कोई घर हैं। व्यक्तिवादी सोच के कारण वह परिवार को भूल जाते हैं। जबकि बुजुर्गो का स्नेह व नसीहत उनके भविष्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। पारिवार तोड़ने की जिम्मेदारी केवल युवाओं पर ही नहीं थोपी जा सकती। इसके लिए पुरानी पीढ़ी भी बराबर की जिम्मेदार है। वह वक्त के साथ अपने विचारों से तादात्म नहीं स्थापित कर पाते। दो पीढ़ियों की विचारधारा में टकराव से ही परिवारों में कलह पैदा होती है। अगर दोनों पीढ़ी अपने विचारों में संतुलन स्थापित करे तो निश्चित रूप से परिवारों के बिखराव को रोका जा सकता है। नये का स्वागत और पुराने का सम्मान करने से ही परिवारों में प्रेम अक्षुण्ण रह सकता है। परिवारों के टूटने का मुख्य कारण तेजी से बढ़ता औद्योगीकरण है। जब बाहर से लोग अपने रोजगार के लिए शहरों के आते हैं तो अपनी विरासत, और परम्परा को भूल जाते हैं। परिवार से दूर होने के कारण उनमें पारस्परिक स्नेह भी कम हो जाता है। वह अपने आसपास के लोगों अथवा सहकर्मियों पर अधिक निर्भर रहते हैं। आज लोगों के सामने अपने अस्तित्व को बचाये रखने की चिंता है। वह पहले अपना कैरियर बनाता है। परिवार उसके लिए प्राथमिकता के दूसरे नम्बर पर है। भौतिक युग ने मानव की सारी संवेदनाओं को निगल लिया है। वह केवल प्रगति और विकास की बात सोचता है। परिवार उसके लिए कोई महत्व नहीं रखता। जब कोई व्यक्ति सफल होता है तब वह ईश्वर और अपने परिवार को इसका श्रेय नहीं देता है। यही अहम की भावना उसे परिवार से अलग कर देती है। जब हम पर आत्म विश्वास की जगह घंमड हावी हो जाता है। तभी परिवार टूटता है। लेकिन आज आदमी को परिवार से अलग रहने की बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ रही है। वह असुरक्षित है। बच्चे बेलगाम हैं और विवाहेत्तर संबंधों को बढ़ावा मिल रहा है।

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