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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

रिटायरमेंट में आयु वृद्धि क्यों

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नवी आजाद उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर चिकित्सा शिक्षकों कीसेवा निवृत्ति की आयु 62 से बढ़ाकर 65 करने को कहा है। प्रदेश सरकार एसजीपीजीआई लखनऊ केचिकित्सा शिक्षकों की आयु बढ़ाने जा रही है। इस संबंध में प्रस्ताव तैयार है जिसे केबिनेट की मंजूरी काइंतजार है। यह भी संभावना है कि प्रदेश के सभी मेडिकल कालेजों के शिक्षकों की आयु में वृद्धि कीजायेगी। सरकार के इस फैसले से बेरोजगार डाक्टरों में हताशा व्याप्त हो गई है। इससे पहले भी सरकारकेन्द्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की रिटायरमेंट आयु में वृद्धि की वुकी है। क्या सरकार को पता नहीं हैकि देश में हजारों पी-एच.डी., डी.लिट् तथा नेट क्वालीफाइड युवा हैं जो नौकरी की वाट जोहते-जोहतेप्रोढ़ावस्था के कगार पर गये हैं। इसी प्रकार बी.एड.एम.एड. लोगों की भी कोई कमी नहीं है। लेकिनसरकार के अदूरदर्शी निर्णय से इन लोगों का भाग्य भी अंधकारमय हो गया है। शिक्षित बेरोजगारों कीफौज निरंतर बढ़ती ही जा रही है। उस पर भी सरकार अपने शिक्षकों की रिटायरमेंट की आयुसीमा मेंनिरंतर वृद्धि कर रही है। प्रदेश के शिक्षा जगत में भी आयु सीमा 62 वर्ष है। सवाल यह पैदा होता है किजब देश में पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित लोग हैं तो इन रिटायर्ड लोगों की फौज का क्यों पाला जा रहा पालाजा रहा है। इसी प्रकार कुछ शिक्षण संस्थानों में अनुभव के नाम पर रिटायर्ड शिक्षकों अथवा डाक्टरों कोरखा जा रहा है। यह क्या युवाओं के साथ द्रोह नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि लगभग सभी शिक्षक अपनीपारिवारिक जिम्मेदारियों से 55-60 की आयु तक मुक्ति पा लेते हैं। रिटायर होने के दो साल पहले से हीवह अपना कार्यभार त्याग देते हैं और अपनी पेंशन, ग्रेच्युटी आदि अन्य लाभों के गुणा-जोड़ में लगे रहतेहैं। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां शिक्षित बेरोजगारों की फौज हताशा और निराशा के सागर में गोतेलगा रही है और हमारे देश के कर्णधारों को उनसे कोई मतलब ही नहीं है। इस प्रकार देश के युवाओं कीऊर्जा और योग्यता का सही मूल्याकंन नहीं हो पा रहा है। सरकार को इन लोगों की आयु सीमा तब बढ़ानीशोभा देती कि देश में शिक्षित और प्रशिक्षित लोगों का अभाव है। अतः संस्थाओं के सुचारू संचालन केलिए रिटायरमेंट की सीमा बढ़ाई जा रही है। सरकार के इस तरह के अदूरदर्शी फैसलों से युवाओं केदिशाभ्रमित होने का खतरा मंडरा रहा है। असंतोष और हताशा कब किस शिक्षित युवा को अराजकता कीओर मोड़ दे। कहा नहीं जा सकता। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि विपक्ष हर जरूरी और गैरजरूरी बातपर अपनी आपत्ति दर्ज कराता है लेकिन रिटायर्ड लोगों की चारागाह बनाने के लिए उसकी भी मौनस्वीकृति है। वस्तुतः अब समय गया है कि शिक्षित युवाओं को स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी।अन्यथा नौकरी के इंतजार में उनकी आयुसीमा निकलने में देर नहीं लगेगी।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

गुरुता हुई कलंकित, गुरु बने गुरु घंटाल

कभी भारत को विश्व गुरू कहा जाता है। यहां ज्ञान का अथाह भंडार था। गुरु सात्विक जीवन और नैतिक मूल्यों में विश्वास करते थे। राजा से लेकर रंक तक उनका सम्मान करता था। यह उन गुरूओं की महानता ही थी कि आरुणि, एकलव्य जैसे शिष्यों ने गुरू के प्रति अपनी श्रद्धा अनवरत जारी रखी। लेकिन बदलते परिवेश में भारत में गुरूओं की तो बाढ़ गई है लेकिन गुरुता दम तोड़ती नजर रही है। कोई धर्म-गुरु, कोई आध्यात्मिक-गुरु, कोई कुलगुरु, कोई कला और संगीत गुरु तो कोई विद्या-गुरु। अब तो चोर और डाकुओं के भी गुरु होने लगे हैं जो उन्हें उस पेशे का हुनर ईमानदारी से सिखाते हैं। वक्त के साथ गुरु-शिष्य परंपरा बदलती गई। गुरु या तो मास्टर हो गया है कोच। वह पूरा व्यवसायिक हो गया। इसी प्रकार शिष्य भी बदल गया। गुरु को वह या तो वेतनभोगी समझता है अथवा ट्यूशन खोर। उसके मन में गुरु के लिए कोई श्रद्धा और सम्मान नहीं है। आखिर कैसे बदला यह सब। गुरुओं के प्रति श्रद्धा घटने कामुख्य कारण शिक्षा जगत में अयोग्य लोगों का प्रवेश है। योग्य और प्रतिभाशाली लोग तो सिविलसर्विसेज, चिकित्सा, इंजीनियरिंग तथा वैज्ञानिक क्षेत्र में चले जाते हैं। जो इनसे बचे रहते हैं। वह शिक्षक बन जाते हैं। वह शिक्षक भी अपनी योग्यता के आधार पर नहीं अपितु भ्रष्टाचार और भाई-भतीजेवाद के कारण बनते हैं। जब ऐसे लोगों में शिक्षा के संस्कार ही नहीं है तो गुरुत्व कहां रहेगा ? जब से शिक्षा का बाजारीकरण हुआ है तब से शिक्षामंदिरों की दुर्दशा हो गई है ? गुरु और शिष्य का संबंध ग्राहक और दुकानदार का हो गया है। सरकारी और अनुदानित शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का वातावरण समाप्त हो गया है। गुरु भी पैसे के लिए दौड़ रहा है। यह अपने कर्तव्य से विमुख हुआ है। जब अपने को राष्ट्रनिर्माता कहने वाला ही नैतिक मूल्यों और सात्विक जीवन में विश्वास नहीं रखेगा तो गुरुता में तो गिरावट आयेगी। वस्तुतः कुछ लोगों ने तो गुरु शब्द को ही अपने कर्मों और व्यवहार से कलंकित कर दिया है। कान में मंत्र फूंकने वाला अथवा कंठी-माला पहचाने वाला ही गुरु नहीं होता बल्कि गुरु तो शिष्य को अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। कबीर ने भी गुरु को गोविंद से श्रेष्ठ माना है। वस्तुतः गुरु तो व्यक्ति है और ही संस्था। वह तत्व है जिसे पाने के लिए उसे ज्ञान अर्जन कर उसे वितरण करना होता है। आज समाज में गुरु कम गुरु घंटाल अधिक दिखाई देते हैं। जबगुरुओं ने ही सात्विक जीवन और नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ा दी है तो कौन शिष्य उनका सम्मान करेगा। आज का गुरु ज्ञानपिपासु कम भोगपिपासु अधिक हो गया है। सारे देश में धर्म-गुरुओं सहित शिक्षा-गुरुओं की बाढ़ आई हुई है लेकिन फिर भी समाज में गिरावट जारी है। इसका मुख्यकारण गुरुओं का गुरुता से हट जाना है। गुरुओं का समर्पण अपने परिवार को भौतिक साधन जुटाने तक सीमित रह गया है। यही कारण है कि आज हर क्षेत्र का गुरु साधन-संपन्न है। गुरुओं को अपना सम्मान अक्षुण्ण रखने के लिए भारतीय दर्शन और नैतिक मूल्यों को आत्मसात करना होगा।
आज का गुरु केवल अपने तक सीमित है। उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। शिक्षा मंदिरों में गुरुओं ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है। बदलते सोशियो-इकोनोमिक परिवेश का उसपर पूरा प्रभाव पड़ा है।गुरु-शिष्य परंपरा तो गुरुकुल के बाद समाप्त हो गई। आज के गुरु रूपी शिक्षक को अपने वेतन से मतलब है। उसमें ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा नहीं रही। जब वह ही ज्ञान और सृजन से दूर भाग रहा है तो शिष्यों को कैसे प्रेरित करेगा। अगर शिक्षक प्रोफेशनल ओनेस्टी अपनाएं तो बहुत कुछ बदलाव हो सकता है। हकीकत यह है कि आज छात्र पढ़ना चाहता है और शिक्षक पढ़ाना। जब शिक्षक को बिना पढ़ाए पूरा वेतन और प्रोन्नति सहित सुविधाएं मिल रहीं है तो वह क्यों अपने कर्तव्य का पालन करे ? उस पर कोई अंकुश नहीं। निजी क्षेत्र का शिक्षक अल्पवेतन से परेशान है और सरकारी और अनुदानित संस्थान के गुरु निरंकुश हैं। कहां रहा गुरु और शिष्य का रिश्ता ?
पहले गुरुओं के पास अभिभावक ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजते थे। गुरु और शिष्य का रिश्ता अटूट था। उनमें आत्मीयता और लगाव था। वह गुरुओं का सम्मान करते थे। लेकिन आज का अभिभावक बच्चों को पढ़ाने नहीं अपितु पास कराने के लिए आता है। वह स्कूल-कालेजों में सीधी बात कहता है कि बच्चा फर्स्ट क्लास पास होना चाहिए। जब से शिक्षा जगत में नकल का बोलवाला हुआ है। गुरु और शिष्य के संबंध आहत हुए हैं। अभिभावकों ने ही गुरु को भ्रष्ट बनाया है और उसी ने ट्यूशनखोर। आरंभ में अभिभावकों ने गुरु रूपी शिक्षक को लालच देकर खरीदा और अब गुरु अपनी कीमत पर बिक रहा है। शिक्षा जगत में आई गिरावट के लिए अभिभावक जिम्मेदार हैं। उन्होंने बच्चों में संस्कार नहीं दिए कि गुरु का कैसे सम्मान किया जाए ? पैसे के बल पर लोगों ने कला और धर्मगुरुओं तक को खरीद लिया। अतः उनकी गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं है तो गुरुओं की उनके प्रति आत्मीयता कैसे रहेगी ?

शनिवार, 24 जुलाई 2010

श्रेष्ठ कवि दिविक रमेश और व्यंग्यकार अविनाश


लोकसंघर्ष परिकल्पना ब्लॉगोत्सव-10 ने वर्ष के श्रेष्ठ कवि के रूप में चर्चित कवि दिविक रमेश को सम्मान देकर स्वयं को महिमामंडित किया है। उनकी पहचान पहले से ही हिंदी जगत में ससम्मान है। उन्हें हिंदी साहित्य के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। जिनमें सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार भी शामिल है। उनकी पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। वह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है। हिंदी की लगभग सभी विधाओं पर उनका साधिकार लेखन है। दिल्ली निवासी दिविक रमेश का वास्तविक नाम रमेश चंद शर्मा है। वह मोतीलाल नेहरू कालेज दिल्ली में प्राचार्य हैं।
दिविक रमेश अनेक देशों जैसे जापान, कोरिया, बैंकाक, हांगकांग, सिंगापोर, इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, जर्मनी, पोर्ट ऑफ स्पेन आदि की यात्राएं कर चुके हैं। आलोचक को संबोधित उनकी कविता-

समझ यह भी आता है
कि बहुत आसान होता है
व्याख्यायित करना अपने से इतर को
कि वह पेड़ है कि वह जड़ है
कि वह वह है कि वह वह है
और यह भी कि वह ऐसा है और वह वैसा है।

दिविक जी को अपनी कविता की यह पंक्तियां बेहद पसंद हैं-

जब चोंच में दबा हो तिनका
तो उससे खूबसूरत
कोई पक्षी नहीं होता

और ये भीरू
दरवाजा खुला हो
तो अंधड़-तूफ़ान ही नहीं
एक खूबसूरत
पंख भी तो आ सकता है
उड़ कर ।

ब्लॉगोत्सव में श्रेष्ठ व्यंग्यकार का पुरस्कार इस दुनियां के जाने माने लिक्खाड़ अविनाश वाचस्पति को मिला है। हिंदी ब्लॉग जगत को उन्होंने नये आयाम और बुलंदियां दी हैं। दिल्ली में जन्मे अविनाश शायद हर वक्त ब्लॉग की दुनियां में उपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनके कई ब्लॉग हैं जिनमें पिताजी, नुक्कड़, बगीची, तेताला, झकाझक टाइम्स आदि। लेकिन उनका चर्चित ब्लॉग नुक्कड़ ही है। इस ब्लॉग पर वह अपना परिचय इस अंदाज में देते हैं।
अंगूठा हूं मैं एक
ऊंगलियां चार
मिले सब हथेली हो गई तैयार
दसों से करता हूं कीबोर्ड पर वार
कीबोर्ड ही है अब मेरे लिखने का हथियार
जब बांध लिया तो बन गया मुक्का
सकल जग की ताकत है अब चिट्ठा।

चिट्ठाजगत में संभवतः अविनाश ही ऐसे चिट्ठाकार हैं जिनकी टिप्पणियां लगभग हर ब्लॉग पर मिल जायेंगी। चाहे वह टिप्पणीकर्ता के रूप् में अथवा अनुसरण कर्ता के रूप् में। उनका लेखन भी बहुआयामी है। उनके व्यंग्य चुटीले और व्यवस्था पर तीखी चोट करते प्रतीत होते हैं। ब्लॉगरों से मिलना और उसेे संस्मरण के रूप् में चिट्ठा जगत में प्रस्तुत करने का उनका अपना तरीका है। उनके व्यंग्य आलेख कई पत्रों में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। उन्होंने बहुत लोगों को ब्लॉग दुनियां में आने के लिए प्रेरित किया है और ब्लॉगर्स को एक मंच पर लाने को वह प्रतिबद्ध नजर आते हैं।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

भ्रष्ट जजों की बर्खास्तगी

‘जज की सेवा ऐसी है जिसमें ईमानदारी और उच्च पेशेवर मूल्यों को बचाए रखना पड़ता है।‘
बर्खास्त जजों की याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी आशा का संचार करती हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में उसका कड़ा रुख है। यह ऐसे समय में और अधिक महत्वपूर्ण है जबकि विधायिका और कार्यपालिका अपनी प्रासंगिकता खोने के कगार पर है। न्यायपालिका के प्रति देश के नागरिकों को अभी काफी उम्मीदें हैं। इस निर्णय से साफ हो गया कि न्यायपालिका जब अपने जज को भ्रष्टाचार के मामले में माफी देने को तैयार नहीं है तो नेताओं और नौकरशाहों को भी उससे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। वस्तुतः देश का पूरा सिस्टम भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। लगता है कि लोगों ने भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए जहां देश में गरीबी बेतहाशा बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर धनाढ्यों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। यह बढ़ोतरी उत्पादन और सेवा से नहीं अपितु भ्रष्टाचार के द्वारा अर्जित हो रही है। यह इस गरीब देश का दुर्भाग्य है कि हमारी गरीबों की लोकसभा में 300 माननीय सांसद करोड़पति हैं। हालांकि पैसे वाला होना कोई बुरी बात नहीं है। सवाल यह है कि यह लोग कैसे पैसे वाले हुए। आज अधिकांश नेताओं की जन्मपत्राी खंगाली जाये तो अधिकतर राजनीति से पहले साधारण हैसियत के लोग थे। अचानक उनकी दौलत इतनी बढ़ गई कि वह पूंजीपतियों के शामिल हो गये। यही स्थिति नौकरशाहों की है। लेखपाल से लेकर लिपिक, निरीक्षक से लेकर अधिकारी तक सभी भ्रष्टाचार की गंगा में जमकर गोते लगा रहे हैं। इन लोगों की नौकरी की भी खास परवाह नहीं होती क्योंकि इन्होंने भ्रष्टाचार के जरिए से इतना बेतहाशा धन कमा लिया है कि उन्हें भविष्य की चिंता नहीं है। हमारी कार्यपालिका भ्रष्टाचार के मामले पर घड़ियाली आंसू तो बहाती है लेकिन कोई कड़ी कार्रवाई नहीं करती। आखिर करे भी तो कैसे, सब उनके भाई-बंधू ही तो हैं। वह भी भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगाकर इस ऊंचाई पर आए हैं। भ्रष्टाचार की यह दास्तां जीवंत है कि हर वर्ष विकास के नाम पर अरबों-खरबों रुपया खर्च होता है लेकिन विकास के कहीं दीदार नहीं होते। सरकार की बहुत सी जनहितकारी योजनाएं कागजों पर हीं चल रहीं हैं। इस गड़बड़ घोटाले में शासन-प्रशासन ही नहीं अपितु सेवा का ढांेग करने वाले कुछ एनजीओ भी शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उच्च न्यायालय और आधीनस्थ न्यायालयों को सबक लेना चाहिए िकवह किसी कीमत पर भ्रष्टाचारियों को राहत न दें। सरकार को भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़नी होगी क्योंकि हमारी विकास की घास को भ्रष्टाचार रूपी जानवर जमकर चर रहे हैं।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

पगला गया है आगरा



लगता है कि आगरा पगला गया हैहो सकता है कि यह पागलखाने का असर होपरन्तु यह नहीं हो सकता ? फिरयह क्या हैसमझ के बाहर हैइस समय आगरा में जोर शोर से एक ही कार्यक्रम चल रहा हैकलर्स चैनल के चकधूम धूम और सोनी चैनल के इंडियन आइडियल में जीतने वालों को धडाधड एस ऍम एस भेजने काअखवारों मेंइस बावत विज्ञापन छापे जा रहें हैंयहाँ होने वाले हर कार्यक्रम में मेसेज भेजने का अनुरोध किया जा रहा हैआगरा के कुछ छपास प्रेमी और प्रतियोगियों की जाति वाले इस मुहिम में विशेष रूप से लगे हुए हैआश्चर्य तो इसबात का है कि इस मुहिम में आगरा के प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल हो गए हैंयह मुहिम चैनल और मोबाईलकंपनी को मालामाल करने के लिए चलाई जा रही हैआगरा की साहित्य और संस्कृति व् कला में विशिष्ट पहचानरही हैइस तरह के उछल कूद वाले नाच की प्रतियोगिता के लिए हम क्यों पगला रहे हैंअगर कोई जीत भी गयातो क्या होगाअभी विगत माह आगरा के ही साहित्यकार डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान को शिक्षा और साहित्यमें पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत भारत की राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा पाटिल ने कियाशायद ही यहाँ के लोगों नेउनका जोरदार सम्मान किया होअफ़सोस इस बात का है कि चैनल्स के माल मारो अभियान में हमारे शहर केकथित समाजसेवी, राजनेता और प्रबुध्य भी लोग शामिल हो रहे हैइन लोगों का लक्ष्य लाखों एस एम एस करानेका हैयह भी प्रचार किया जा रहा है कि एक सिम से ९० मेसेज भेजे जा सकते हैंइस तरह चैनल्स और मोबाइलकंपनियों को करोड़ों का फायदा होगा और हम बेकार में ही उनके झांसे में रहे हैंलोगों को याद होगा कि पहले स्टार प्लस चैनल पर कौन बनेगा करोडपति शो आया था जिसमे चैनल और फ़ोन कंपनियों ने दसियों करोड़कमाएआखिर हम कब तक बाज़ार के शिकार बनते रहेंगे.

शनिवार, 17 जुलाई 2010

भविष्य जानने की उत्कंठा क्यों ?

अभी फुटबॉल विश्वकप ने ज्योतिष को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। स्पैन के विजेता बनने पर उसकी हर जगह जयजयकार हो रही है। लेकिन जर्मनी में उसके खिलाफ विरोध के स्वर भी गूंज रहे हैं। आखिर एक जलजीव ने ऐसा कर दिखाया जो हमारे बड़े से बड़े ज्योतिषी भी करने में संकोच करते हैं। अतः ज्योतिष की भारत के बाहर भी पुर्नस्थापना हो रही है। लेकिन वास्तव में ज्योतिष क्या है। ? इसकी भविष्यवाणियों का क्या पैमाना है। यह सिर्फ अटकलबाजी है अथवा कोई विज्ञान। इस संदर्भ में आम आदमी भी ज्योतिषियों से अपने भविष्य के बारे में जानना चाहता है। वस्तुतः हर आदमी अपने अतीत को भूल जाना चाहता है और भविष्य की ओर देखता है। इसी भविष्य निर्माण के लिए वह मेहनत, अध्ययन और कर्म करता है। परंतु सवाल पैदा होता है कि क्या उसे अपने कर्म पर विश्वास नहीं है जो अपने भविष्य के लिए चिंतित रहता है। हमारे विद्वानों ने लिखा भी है कि कर्म का लेख मिटे न रे भाई। फिर वह लेखे को मिटाने के लिए ज्योतिष की शरण में क्यों जाता है।
ज्योतिष हमेशा से ही कुछ लोगों के लिए कमाई का जबर्दस्त साधन रहा है। कुछ लोग बैल के माध्यम से भविष्य बताते हैं तो कुछ कुत्ते के माध्यम से। सड़कों पर तोतों के माध्यम से भी भविष्य की जानकारी दी जाती है। क्योंकिमनुष्य स्वभाव से जिज्ञासु होता है। वह अपने भावी जीवन के बारे में जानना चाहता है। इसीलिए वह इन कथित ज्योतिषियों के षरण में चला जाता है। वैसे कर्म का बीज कभी बंजर नहीं होता। हमारे कर्मों से ही भविष्य का निर्माण होता है। हमें अतीत को भूल जाना चाहिए। भविष्य की चिंता नहीं करनी चाहिए और वर्तमान को सुखद बनाने का प्रयास करना चाहिए। तभी भविष्य सुखद हो सकता है। भविष्यवाणी करने के लिए गहन अध्ययन और मनन की जरूरत पड़ती है। लेकिन यह पुरातन विद्या भी व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। ऐसे परिवेश में सही निष्कर्ष निकलना असंभव सा लगता है। वस्तुतः ज्योतिष एक विज्ञान है और उसके लिए ग्रह, नक्षत्र आदि की सटीक गणना आवश्यक है। कुछ कथित भविष्यवक्ता का तीर में तुक्का लग जाता है और वह लोकप्रिय हो जाते हैं। वैसे भविष्य की चिंता कर्महीन लोग ही करते हैं। हो सकता है कि उनका वर्तमान दुखद हो जिससे वह भावी सुखद जीवन की कल्पना के वशीभूत होकर अपना भविष्य जानने की उत्कंठा रखते हों।
भविष्य के प्रति हर व्यक्ति का उत्कंठित रहना स्वाभाविक ही है। वह अपना, अपने परिवार, समाज व देश का भला चाहता है। इसी के वशीभूत होकर वह भविष्य के प्रति जानने की इच्छा के कारण ज्योतिषियों के पास जाता है। लेकिन ज्योतिष खगोलीय विज्ञान है। सूर्य और चद्र पर आधारित हमारा ज्योतिष पूर्णतः वैज्ञानिक है। लेकिन भविष्यवाणी करना असाध्य कार्य है। हां इतना अवश्य है कि कथित ज्योतिषियों ने कुछ फंडे ईजाद कर लिए है। जिनसे वह मरीज, वृद्ध, महिलाओं व व्यापारियों का दोहन करते हैं। हां कुछ लोग भविष्य की परवाह नहीं करते। लेकिन इससे उनके भविष्य पर कोई दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता। हर व्यक्ति के जीवन पर नक्षत्र और राशियों का प्रभाव पड़ता है। जब बच्चा मां के गर्भ से बाहर आता है तो उस पर खगोलीय किरणें पड़ती हैं। नक्षत्रों के आधार पर ही जन्मकुंडली बनाई जाती है। इसमें समय का बहुत महत्व है। लेकिन ज्योतिषीय गणना दुरूह और असाध्य साधना है। धंधेबाज लोगों के पास इतना समय ही नहीं होता कि वह कठोर साधना करें। इसीलिए ऐसे लोगों के ज्योतिषीय परिणाम असफल रहते हैं। यह वस्तुतः दैवीय विधा है जो निरंतर साधना और तपस्या मांगती है।
आज का हर आदमी सुख-साधन की कामना में रत रहता है। वह चाहता है कि सारी दुनियां के सुख साधन उसके पास हों। इसीलिए वह भविष्य के सपने देखता है। पहले आदमी संतोषी होता था। वह भाग्यवादी भी था। लेकिन बदलते परिवेष में उसका मन चलायमान हो गया है। अमीर देशों में लोगों को भविष्य को जानने की चिंता नहीं रहती क्योंकि उनके पास सब कुछ है। वह जब चाहे अपनी इच्छा पूरी कर सकता है। लेकिन गरीब और अभावग्रस्त लोग भविष्य की ओर टकटकी लगाये रहते हैं कि शायद उनके दिन पलट जायें। भविष्यवाणी का प्रतिफल 70 से 80 फीसदी होता है। किसी भी विषय पर अचूक भविष्यवाणी संभव नहीं है। लेकिन इन बातों को हमारे व्यापारी ज्योतिषी हवा दे रहे हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य लोगों से धन ऐंठना रह गया है। ज्योतिष में यह लोग व्यापारी जैसा हर हठकंडा अपनाते हैं। जबकि ज्योतिष विज्ञान है। इसके लिए गहन अध्ययन की आवष्यकता होती है। जब ज्योतिषियों के पास अपने क्लाइंटों से ही फुर्सत नहीं है तो वह सही गणना कैसे करते होंगे। मेरी समझ के बाहर है। भविष्य को बदलने की किसी के पास क्षमता नहीं होती। ईश्वर के विधान में कोई दखलंदाजी कर ही नहीं सकता। हां इतना अवश्य है कि अच्छा ज्योतिषी भावी जीवन के कुछ संकटों को उदार बना सकता है। वह भी डाक्टर की भांति केवल मार्गदर्शक है। भविष्य के लिए उत्कंठा होना स्वाभाविक ही है। आदमी चेतनशीलहोता है। वह चाहता है कि उसका भविष्य अतीत और वर्तमान से अच्छा हो। यही उत्कंठा उसे खींचकर ज्योतिषियों के पास ले आती है। ज्योतिष कि दुकानी इस तरह खुल गयी हैं कि हर शहर में बैल और कुत्ते को लेकर कुछ लोग भविष्य बताते हैं। जानवरों में सूंघने की क्षमता अधिक होती है। अतः वह जिस मुट्ठी में कुछ होता है। उस पर अपना मुंह अथवा पैर लगा देता है।

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव 2010 के श्रेष्ठ लेखक व लेखिका


हिंदी ब्लॉगिंग अपने परवान पर है। इसने भी अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में अपनी पहचान बना ली है। ब्लॉग लेखन में अद्वितीय योगदान के लिए इस उत्सव में पुणे की श्रीमती सरस्वती प्रसाद को वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका तथा भोपाल के रवि रतलामी उर्फ रविशंकर श्रीवास्तव को श्रेष्ठ लेखक के रूप में पुरस्कृत किया गया। वस्तुतः हिंदी ब्लॉग की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। कई रचनात्मक लेखकों और कवियों ने इसे समृद्ध बनाया है।
ब्लॉग ‘मैं और मेरी सोच‘ सरस्वती प्रसाद का है। इस ब्लॉग का परिचय इन पंक्तियों में समाहित है। ‘‘सुंदरता एक ऐसा चित्र है, जिसे तुम आंख बंद करने के बाद भी देख लेते हो और कान बंद करने के बाद भी सुन लेते हो.....ठीक उसी तरह कल्पनाओं की धरती अपनी हो जाती है, जब हमारे हाथ में कलम हो तो...............
सरस्वती प्रसाद के इस ब्लॉग में अधिकांश कविताएं ही हैं। लेकिन उन्हें संस्मरण पर पुरस्कार मिला है। ब्लॉग पर उनकी कविता-
दो निगाहों के लिए,
दो नयन भटके हर कहीं
पर न पाया ठौर
अपना भी बना कोई नहीं
अब ये क्या अपनाती
जब जा रही बरात है...........
क्या अनौखी बात है

उनकी पोस्ट संस्मरण-प्रश्नों के आइने में, मैं उन्होंने अपने जीवन के अछूते पहलुओं पर प्रकाश डाला है। इसमें उन्होंने सुमित्रानंदन पंत के पत्र का भी जिक्र किया है जो उन्हें लिखा गया। बचपन की सुखद अनुभूतियों से यह आलेख सराबोर है। ब्लॉगर की एक पुस्तक ‘नदी पुकारे सागर‘ प्रकाशित हो चुकी है।
श्रेष्ठ लेखक के रूप में पुरस्कृत रवि रतलामी चिट्ठा जगत का जाना-पहचाना नाम है। उनके दो ब्लॉग ‘‘रचनाकार तथा छींटें और बौछारें हैं। रचनाकार वस्तुतः ब्लॉग पत्रिका लगती है जिसमें विभिन्न रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित होती हैं। इस प्रकार इसे रचनाकारों का साक्षा मंच भी कहा जा सकता है।
छींटें और बौछारें अपने आप में हिंदी का संपूर्ण ब्लॉग है। ब्लॅाग के परिचय में ‘‘टेड़ी दुनियां पर रवि की तिर्यक रेखाएं‘‘ अपने आप में बहुत कुछ कह जातीं हैं। ब्लॉग में कई लेबल यथा व्यंग्य, तकनीकी, विविध, हिंदी के तहत रचनाएं पोस्ट की गई हैं। जिस प्रकार चिट्ठाकार लेखन में सिद्धहस्त है उसी प्रकार उसके कैमरे की निगाहें भी काफी तीक्ष्ण हैं।
चित्रावली में उनके द्वारा पोस्ट फोटो बोलते प्रतीत होते हैं। उनका कैमरा वहां पहुंच जाता है जहां शब्द विवश हो जाता है। देश-दशा पर व्यंग्यात्मक दृष्टि ही उनक लेखन की विशेषता है। शिक्षा-रोजगार का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसके अंतर्गत एक बच्चे को सिर पर टोकरी लिए मजदूरी करते दिखाया गया है। इसी प्रकार पार्किंग पर चलती जिंदगी, चटाई घड़ी, पुरातत्व इमारतों की जर्जर स्थिति आदि फोटो प्रभावित करने के साथ हमारी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते प्रतीत होते हैं। उनकी गजल की बानगी दृष्टव्य है-
देश तो साला जैसे सुबह का अखबार हो गया
वे तो एक नोवेल था कैसे अखबार हो गया

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

प्रदेश में अपराधियों का बोलवाला

प्रदेश में जब सुश्री मायावती कुर्सी पर आसीन हुईं थीं तो लोगों ने चैन की सांस ली थी कि अब गुंडागर्दी कम होगी और आम लोगों को शांति के साथ रहने का मौका मिलेगा। लोगों का सोचना भी सही था कि क्यों सुश्री मायावती ‘‘चढ़ गुंडों की छाती पर, बटन दबेगा हाथी पर‘‘ के नारे के साथ सपा शासन में व्याप्त गुंडागर्दी के खिलाफ जीतकर सत्ता में आईं थी। लेकिन अब लगता है कि हाथी ही गुंडों के चक्कर में फंस गया है। प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति निरंतर खराब होती जा रही है। अपराधियों के हौंसले बुलंद हैं। दिन दहाड़े हत्या, लूट और अपहरण का दौर जारी है। महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल हो गया है। एक महिला के शासन में महिलाओं की इज्जत भी सुरक्षित नहीं है। क्या प्रदेश की स्थिति ऐसी रहेगा अथवा उसमें कोई सुधार आयेगा। फिलहाल इतना तो निश्चित है कि अपराधियों में सत्ता की हनक समाप्त हो गई है। शरीफ आदमी अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए विवश नजर आता है।
कभी राजनीति में तपे तपाये लोग आते थे। उनकी भावना समाज और देश की सेवा करने की होती थी। लेकिन अब तो राजनीति में अपराधी तत्वों की भरमार हो गई है। सफेदपोश अपराधी भारी संख्या में राजनीति में आ गये हैं। इनको अपने स्वार्थ के लिए सत्ताधारी दल का दामन थामना पड़ना है। यही कारण है कि प्रदेश में गुंडागर्दी और अपराध चरमसीमा पर है। अगर राजनीति में अपराधियों का प्रवेश बंद हो जाये तो अपराध स्वतः ही समाप्त हो जायेगा।
जिस पुलिस पर प्रदेष में कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी हैं वही अपने काम को सही तरीके से अंजाम नहीं दे रही है। पुलिस कर्मी और अधिकारी जनता की सेवा की अपेक्षा कमाई में लगे रहते हैं। जिससे अपराधियों के हौंसले बुलंद हैं। पुलिस में ईमानदार लोग भर्ती हों। तभी गुंडागर्दी पर रोक लग पायेगी। षासन किसी का हो लेकिन पुलिस वही रहेगी। अतः पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन जरूरी है। सरकार को भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई और ईमानदार पुलिस कम्रियों को प्रोत्साहन देना होगा।
पहले लोग संतोषी होते थे। लेकिन अब वह स्थिति नहीं है। हमारी दिशाभ्रमित युवा पीढ़ी अपराध में बढ़-चढ़कर योगदान दे रही है। उनको पीने के लिए बीयर या शराब चाहिए। पहनने के लिए ब्रांडेड कपड़े और जूते चाहिए। महंगे मोबाइल और बाइक चाहिए। इन सबके लिए अनाप-षनाप पैसा अपराध के जरिये ही आ सकता है। हर जगह ऐसे युवा मिल जायेंगे कि कुछ काम-धंधा किये बिना हजारों रुपये रोज खर्च करते हैं। ऐसे तत्वों पर निगरानी रखी जानी चाहिए।
एक तरफ तो आम आदमी महंगाई की वजह से परेशान है। दूसरे निरंतर बढ़ते अपराधों ने उसका जीना हराम कर दिया है। इस व्यवस्था में गरीब का ही मरना है। उसकी बिना पैसे न पुलिस में रिपोर्ट लिखी जाती है और न ही अपराधी उसपर रहम खाते हैं। किसी गरीब के घर चोरी से उसका पूरा घर भुखमरी का शिकार हो जाता है। गुंडागर्दी का शिकार गरीब ही अधिक होते हैं। सरकार को इस ओर कड़ाई से पेश आना चाहिए।
वस्तुत प्रान्त की कानून व्यवस्था लचर हो गई है। सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। आम आदमी की तो औकात ही क्या है। सरकार के मंत्री भी सुरक्षित नहीं है। गुंडों पर कोई लगाम नहीं है। क्योंकि वही पैसा खर्च करते और कमाते है। सभी राजनैतिक दलों में अपराधियों की भरमार हो गई है। पूरा प्रदेश मिलावटखोरी, भ्रष्टाचार, हत्या, लूट से त्राहि-त्राहि कर रहा है और बहनजी आराम से कुर्सी का मजा ले रहीं हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि लोगों ने उन्हें गुंडागर्दी के खिलाफ ही वोट दिया था।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

इलाज का मकड़जाल-मरीज़ बेहाल

पूर्ण समन्वित


हमारी चिकित्सा व्यवस्था मकड़जाल सी बन गई है। हर डाक्टर और अस्पताल के अपने तरीके हैं इलाज करने के। हर बीमारी का अलग-अलग रेट है। शायद इसीलिए बीमा कम्पनियों ने मेडिक्लेम पॉलिसी की कैशलैश व्यवस्था का कुछ दिन पहलने अलविदा कह दिया था। परंतु अस्पतालों के संचालकों से आपसी वार्तालाप में यह मामला सुलझ गया लगता है। अतः अब पुनः बीमाधारकों को इस तरह के इलाज की सुविधाएं उपलब्ध होंगी। वास्तव में देखा जाये तो चिकित्सा जैसा सेवा का पेशा विशुढ्य व्यापार में बदल गया है। हर बीमारी के लिए कई तरह के टेस्ट हैं। यह टेस्ट या तो अस्पतालों में मनमानी दरों पर होते हैं अथवा डाक्टरो को जहां से अच्छा खासा कमीशन मिलता है। वहां मरीज को कराने की सलाह दी जाती है। चिकित्सा के मकड़जाल से लोगों का निकलना मुश्किल लग रहा है। अभी खबर आयी थी कि एम्स में आपरेसन के लिए वेटिंग साल से अधिक है। इसका मतलब यह हुआ कि आम आदमी को चिकित्सा रूपी व्यापारियों की शरण में जाना पड़ेगा और उनकी मनमानी दरों पर इलाज करवाना होगा। संभवतः बीमा कंपनियों ने कैशलैश चिकित्सा की सुविधा इसीलिए वापस ली थी कि कुछ अस्पताल मनमाने तरीके से फीस वसूल रहे हैं। बीमारियों के इलाज के दरें इन अस्पतालों में अलग-अलग है। कुछ बेमतलब के टेस्ट भी किये जाते हैं। उनकी भरपाई भी बीमा कंपनियों को करनी पड़ती है। अब शायद अस्पताल संचालकों ने बीमा कंपनियों को चिकित्सा दरों की एकरूपता का आश्वासन दे दिया है। चिकित्सा बीमा धारकों के अतिरिक्त देश की सर्वाधिक आबादी सीधे डाक्टर अथवा अस्पताल में इलाज कराने जाती है। वहां उसकी किस तरह हजामत बनाई जाती है। किसी से छिपा नहीं है। उनके इलाज से मरीज अच्छा हो या न तो लेकिन उसके तीमारदारों की तबियत जरूर बिगड़ जाती है। नाना प्रकार के टेस्ट होते हैं। इनकी फीसें इतनी अधिक होती हैं कि आम आदमी देने में असमर्थ रहता है। लेकिन सवाल मरीज की जिंदगी का होता है। इसीलिए वह कर्ज लेकर, मकान अथवा खेत को गिरवीं रखकर डाक्टरों व अस्पतालों के मालिकों का मुंह बंद करता है। इस चिकित्सा से जुड़े लोगों में से कुछ लोग तो इतने क्रूर है कि मरीज के मरने से पहले ही सारा हिसाब-किताब बराबर कर लेते हैं। अपनी फीस के लिए मरे मरीज को वेंटीलेटर के सहारे जिंदा दिखाकर भरपूर कमाई करते हैं। इस ओर सरकार को स्पष्ट नीति बनानी होगी। हर बीमारी के इलाज तथा टेस्ट की दरें निर्धारित करनी होंगी। इसी प्रकार डाक्टरों की आपरेशन फीस, विजिट फीस व परामर्श फीस भी निर्धारित करनी होगी। उनकी फीसों का जिला स्तर पर पर्याप्त प्रचार-प्रसार होना चाहिए जिससे मरीज और उसके तीमारदार लुटने से बच सकें।

जातिवाद कहाँ समाप्त हुआ



हमारे बहुत से कलमघिस्सू और कथित राजनेता और समाजसेवी अक्सर चिल्लाते हैं कि देश से जातिवाद समाप्तहो गया है उन लोगों की आँखें उत्तर प्रदेश में मिड डे मील के मामले से खुल जानी चाहिए सरकारी आदेशानुसार जिस स्कूल में २५ से ५० तक बच्चे होंगे वहां खाना बनाने की जिम्मेदारी दलित महिला की होगी दलित के हाथ का बना हुआ खाना खाने के खिलाफ सवर्ण लोग खुलकर मैदान में गए हैं और तो और इस मुहिम में टीचर भी शामिल बताये जाते हैं जब हम अपने बच्चों को ही जातिवाद का पाठ सिखा रहे हैं तो जातिविहीन समाज की परिकल्पना कैसे की जा सकती है इस सत्य को मानना होगा की देश में जातिवाद की जड़ें काफी गहरी हैं और उसे केवल सरकारी आदेश से नहीं बदला जा सकता समाज भी बदलने को तैयार नहीं है जब हमारे खून में ही जातिवाद कूट कूटकर भरा हुआ है तो उसे कैसे दूर किया जा सकता है. क्या इस बवाल से दलितों में यह पीड़ा नहीं होगी कि आज़ादी के कई दशक के बाद भी हमसे नफरत की जा रही है इस मामले तो यदि जल्दी हल नहीं किया गया तो इसके गंभीर परिणाम निकल सकते हैं हमारा सामाजिक ढांचा लड़खड़ा सकता है

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

प्रख्यात साहित्यकार पद्मश्री
डाक्टर लाल बहादुर सिंह
चौहान के साथ ब्लोगर
डाक्टर महाराज सिंह परिहार
एवं कवियत्री सुनीता बैनर्जी

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डा.महाराज सिंह परिहार के दो गीत



मेरा भारत सिसक रहा है


मौन निमंत्रण की बातें मत आज करो
अंधकार में मेरा भारत सिसक रहा है

सदियों से जो सतपथ का अनुगामी था
सत्य अहिंसा प्रेम सरलता का स्वामी था
आज हुआ क्यों शोर देश के चप्पे चप्पे
वनवासी का धैर्य आज क्यों दहक रहा है
प्रख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह के साथ महाराजसिंह परिहार

होता सपनों का खून यहां लज्जा लुटती चौराहे पर
द्रोणाचार्य की कुटिल सीख से खड़ा एकलब्य दोराहे पर
महलों की जलती आंखों से कुटियाएं जल राख हुईं
और सुरा के साथ देश का यौवन चहक रहा है


यहां सूर्य की किरणें बंद हैं अलमारी में
यहां नित्य मिटतीं हैं कलिया बीमारी में
ज्हां वृक्ष भी तन पर अगणित घाव लिए हों
उसी धरा में शूल मस्त हो महक रहा है

नेह निमंत्रण की बातें स्वीकार मुझे
मस्ती राग फाग की भी अंगीकार मुझे
पर कैसे झुठलादूं मैं गीता की वाणी को
कुरुक्षेत्र में आज पार्थ भी धधक रहा है


मेरे भारत का पार्थ

कौन हमारे नंदनवन में बीज जहर के बोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

आज चंद्र की शीतलता आक्रांत हुई है।
किरणें रवि की भी अब शांत हुई है
मौन हवाएं भी मृत्यु को आमंत्रण देती
पाषाणी दीवारे भी अब नहीं नियंत्रण करती

शब्दकार भी आज अर्थ में खोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

हम भूल गये सांगा के अस्सी घावों को
भुला दिया हमने अपने पौरुष भावों को
दिनकर की हुंकार विलुप्त हुई अम्बर में
सीता लज्जित आज खड़ी है स्वयंवर में

राम-कृष्ण की कर्मभूमि में क्रन्दन होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

बौनी हो गई परम्परायें आज धरा की
लुप्त हो गयीं मर्यादाएं आज धरा की
मौन हो गयी जहां प्रेम की भी शहनाई
बेवशता को देख वेदना भी मुस्काई

रोटी को मोहताज वही जिसने खेतों को जोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
कदम-कदम पर अब क्रांति की तेग चलेगी
निर्धन के आंसू अगर अंगार बन गये
महलों की खुशियां भी उसके साथ जलेगी

देख दशा त्रिपुरारी का नृत्य तांडव होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

शनिवार, 3 जुलाई 2010

पेट्रो उत्पादों की कीमतें आसमान पर

सरकार के इस कदम से महंगाई में वृद्धि होगी, जिसे सरकार रोक नहीं पायेगी। वैसे भी विगत कई वर्षों से सरकार ने महंगाई रोकने का कोई प्रयास नहीं किया है। पेट्रो  उत्पाद मंहगे होने से उत्पादों व सेवा की लागत बड़ेगी और उसे आम जनता से वसूल किया जायेगा। सरकार को गरीबें की स्थिति का ख्याल रखना चाहिए। अगर इसी तरह मंहगाई बढ़ती रही तो गरीबी तो नहीं अपितु मिट जाएगा। मंहगाई के कारण आम आदमी वैसे ही नारकीय जीवन जी रहा है। निरंतर बढ़ती महंगाई को सरकार इसलिए नहीं रोकती क्योंकि पूंजीपतियों के धन से ही चुनाव लड़े जाते है। वह पार्टियों को दी धनराशि को ब्याज सहित आम आदमी से वसूल करते है। सरकार को जनविरोधी करार देती है। सरकार की नीतियों के कारण कंगाली में आटा गीला हो रह है। लगता है कि इस देश में गरीबों से जीने का अधिकार छीना जा रहा है।
लोकतंत्र में विपक्षी दल सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने के लिए होते हैं लेकिन लगता नहीं कि विरोध पक्ष की आम जनता से कोई हमदर्दी है। वास्तव में सभी दलों का चरित्र एक ही है। वह विरोध के नाम पर नाटक तो बहुत करते है लेकिन सरकार की जन विरोधी नीतियों पर अकुंश नहीं लगा पाते। देश का विरोध पक्ष नकारा हो गया है। अब जनता को अपना संघर्ष स्वयं करना होगा।
सभी राजनैतिक दल गरीबों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते है। उनका एक मात्र लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल कर उसका उपभोग करना है। किसी भी दल के एजेंडे में गरीबी और मंहगाई नहीं है। अतः इनसे कोई अपेक्षा नही की जा सकती। अब जनता को ही सामने आना होगा। आज देश में जनांदोलन की जरूरत है। अगर जनता जागरूक होकर सड़कों पर आ गई तो मंहगाई पर अंकुश लगेगा। क्या सर्कार यह नहीं कर सकती की महँगी गाड़ियों वालों से अधिक कीमत वसूल करे और दोपहिया वाहनों को रहत दे. उसे याद रखना होगा की दोपहिया वहां चलने वाले अधिकांश अल्पवेतन भोगी होते हैं. पेट्रोल की कीमतों से उसके घर का बजट गड़बड़ा गया है.
वस्तुतः पेट्रो  उत्पाद की वृद्धि का जन जीवन पर व्यापक असर पड़ा है. इसने जनता  की कमर तोड़ कर रख दी है। सरकार की राजकोषीय घाटे को कम करने की बात तो समझ में आती है लेकिन पेट्रो  उत्पादों पर केंद्र व राज्य के भारी भरकम टैक्सों को वह क्यों नहीं कम करती? उत्तर प्रदेश में ही पेट्रोल  पर 26 फीसदी वैट है। अगर सरकार अपने अनुत्पादक खर्चे कम करे और पेट्रो  उत्पादों से करों का बोझ हटाए तो स्थिति सुखद हो सकती है।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

ब्लॉग पर महिला रचनाकार

ब्लॉग की दुनियां में महिला रचनाकारों का बोलवाला है। इसमें उनकी सृजनशीलता स्पष्ट दिखाई दे रही है। वैसे अभी तक लेखन में पुरुष रचनाकारों की तूती बोलती है लेकिन परिवर्तन के दौर में महिला सर्जक भी अपनी कलम लेकर मैदान में आ गई हैं। उनकी रचनाधर्मिता केवल रूमानी नहीं है अपितु यथार्थ के कठोर धरातल से पाठकों को रूबरू करातीं हैं।
वीर बहूटी ब्लॉग पंजाब की निर्मल कपिला का है। इस ब्लॉग का संदेश ‘अपनी रूप् का शहर - कुछ कल्पनाएं’ वस्तुतः रचनाकार की संवदेनशीलता का परिचायक है। इस ब्लॉग पर कथा, गजल व अपनी बात हैं जिसमें ब्लॉगर समूचे जीवन के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती हैं। इस ब्लॉग पर प्राण शर्मा की गजल दृष्टव्य है-
आपको रोका है कब मेरे जनाब
शौक से पढ़िये मेरे दिल की किताब
बात सोने पर सुहागा सी लगे
सादगी के साथ हो तो कुछ हिजाब
अपने अमेरिका प्रवास के दौरान ब्लॉगर मीट को भी वह अपनी बात के तहत बड़ी संजीदगी के साथ प्रस्तुत करतीं हैं कि जब उन्हें वहां अजीत गुप्ता से मुलाकात हुई। अपनी बात को सचित्र पोस्ट करके उन्होंने इसमें जीवंतता भरने का प्रयास किया है।
जीवन की कटु अनुभूतियां भी उनके पास कम नहीं हैं। तभी तो वह अपनी बात में लिख बैठतीं हैं कि अपना देश अपना ही होता है इस अनूभूति को वह अपनी पोस्ट पर उकेरतीं हैं -
‘‘पंजाबी में एक कहावत है ‘जो सुख छजू दे चौबारे ओह, न बल्ख न बुरारे‘ यानी कहीं भी घूम आओ मगर जो सुख अपने घर में आकर मिलता है वो कहीं नहीं।
रिटायरी कालोनी पोस्ट पर वह रिटायर लोगों के दर्द को साझा करतीं हैं-
‘शायद अपना घर सबका ही सपना होता है। फिर जब आदमी अपने जीवन का सुनहरी समय सरकारी मकान में रहकर गुजार दे तो उसके लिए तो अपना घर और भी अहम बात हो जाती है। फिर जब आदमी रिटायर होने के करीब आता है तो लोग अक्सर ये सवाल करते हैं, अपना घर बना लिया, कहां बना रहे हो अपना घर। उनकी पंखनुमा कविता भी सहज ही प्रभावित करती है।

गजल की ब्लॉगर श्रद्धा जैन सिंगापुर में रहतीं हैं लेकिन उनका ब्लॉग नारी चेतना के नये आयाम गढ़ रहा है। मैं मुहब्बत हूं, मुहब्बत तो नहीं मिटती है.... एक खुश्बू हूं, जो बिखरे तो सबा हो जाए, इस शेर के माध्यम से वह अपने परिचय की शुरूआत करतीं हैं।
यह पूर्णरूपेण गजल को समर्पित है। इनमें श्रद्धा के लेखन के बहुआयाम दिखाई पड़ते हैं। उनका लेखन परम्परागत रूप से बिल्कुल अलग दिखाई देता है। वह कलम को अभिव्यक्ति का सशक्त हथियार मानतीं हैं और पोस्ट करतीं हैं-
सच्चे शब्दों में सच के अहसास लिखेंगे
वक्त पढ़े जिसको कुछ इतना खास लिखेंगे
गीत गजल हम पर लिखेंगे लिखने वाले
हमने कलम उठाई तो इतिहास लिखेंगे
उनकी गजल मन की गहराइयों तक उतरती प्रतीत होती है। उनके एक एक शब्द में आशा की किरणें अपनी आभा बिखेरतीं हैं। वह अपने अहसासों को यूं बयां करतीं हैं-
काश बदलती से कभी धूप निकलती रहती
जीस्त उम्मीद के साए में पलती रहती
फर्ज दुनिया के निभाने में गुजर जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जबकि नदिया की लहर खूब मचलती रहती
जब ब्लोगर अपने अतीत में खो जातीं हैं तो उनका दर्द सहज भी उभर आता है-
रोशन थे आंखों में वो उजाले कहां गए
आखिर हमारे चाहने वाले कहां गए

सिसकता बनाम चमकता भारत

आज भारत वस्तुतः दो भागों में अंट गया है। एक ओर तो चमकता भारत है, जहां ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं हैं। मंहगी गाड़ियां हैं। फाइव स्टार होटल में डिनर और लंच है। अनाप-शनाप बैंक बैलेंस है। दूसरी ओर सिसकता भारत है। जहां भूख है, गरीबी है, लाचारी है, शोष है। उसका एक मात्र सपना दो जून की रोटी है। वहां शिक्षा और चिकित्सा उनके लिए विलासिता है। निरंतर बढ़ती मंहगाई ने उसका जीना दूभर कर दिया है। अभी विगत दिनों हुई पेट्रोल , डीजल और एलपीजी की मूल्य वृद्धि ने उसकी कमर तोड़ दी है। अब प्रधानमंत्री का यह बयान भी महंगाई बढ़ाने वाला है कि डीजल को भी मुक्त बाजार पर छोड़ दिया जायेगा। डीजल की कीमत निर्धारण में सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जायेगा। यानी गरीब और मध्यम वर्ग को बाजार के सहारे छोड़ दिया गया है। जहां तक बाजार का प्रश्न है, उसकी प्राथमिकता अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की रहती है। जन सरोकारों से उसका कोई मतलब नहीं। अतः सरकार के इस कदम से बेतहाशा महंगाई बढ़ेगी। गरीब की रोटी मुश्किल में पड़ेगी और हमारी कथित लोकप्रिय सरकार टुकुर-टुकुर देखती रहेगी। यह सरकार को ज्ञात होना चाहिए कि पेट्रो उत्पाद की कीमतों का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। भाड़ा महंगा होगा, रखरखाव महंगा होगा, लेकिन उस अनुपात में लोगों की आमदनी नहीं बढ़ेगी। क्या यही हमारा कल्याणकारी राज्य है? क्या इससे गरीबी-अमीरी की खाई और चौड़ी नहीं है। बाजार बेलगाम होता जा रहा है। मुनाफाखोरी का प्रतिशत बढ़ रहा है। अगर सरकार आम लोगों की उपेक्षा करेगी तो उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं। उन्हें याद रख्ना चाहिए कि जब भूखा आदमी बगावत पर उतर आता है तो बड़े से बड़े साम्राज्य और सल्तनत धराशायी हो जाते हैं। इस सदंर्भ में कभी मैंने लिखा है -
अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
कदम-कदम पर अब क्रांन्ति की तेग चलेगी
निर्धन के आंसू अगर अंगार बन गए
महलों की खुशियां भी उसके साथ जलेंगी।
वस्तुत चमकते भारत का अस्तित्व तभी रह सकता है जब सिसकते भारत में खुशहाली आए। सत्ताधीशों को इस ओर गंभीर चिंतन करना होगा।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान क़ी रचनाएँ





डाक्टर चौहान संवेदनशील कवि और लेखक हैं। वह कई पुस्तकों के लेखक हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन साहित्य साधना और समाजसेवा में बीता है। उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान पहले ही उन्हें विज्ञानं भूषण कि उपाधि से अलंकृत कर चुकी है। वह आगरा में जन्मे पहले साहित्यकार हैं जिन्हें पहली बार पद्मश्री कि उपाधि प्रदान कि गयी है। हालाँकि इससे पहले गोपाल दस नीरज और हरी शंकर शर्मा को भी पद्मभूषण मिल चुका हैं लेकिन वह मूलरूप से अलीगढ के निवासी थे। उन्हें इसी वर्ष भारत सरकार द्वारा पद्मश्री कि उपाधि से अलंकृत किया गया है।
यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएँ. उनका संपर्क फ़ोन ०९४५६४०२२७४e है।

युवक जाग

युवक जाग अपने वतन को बचाले
डसे जा रहे हैं इसे सर्प काले।
मूल्यवृद्धि गरीबी से है त्रस्त्र भारत
पड़े आदमी को है जीवन के लाले।

राष्ट्र पीड़ा

मनुज सेवा ही मेरा परम धर्म हो
प्राण कर दूँ निछावर वतन के लिए।
राष्ट्रभक्तों के कन्धों मेरी लाश हो
फिर तिरंगा वसन हो कफ़न के लिए।
शुभ घडी की प्रतीक्षा में अरसे से हूँ
काम आये मेरा तन अमन के लिए।
बुद्धिजीवी युवक वर्ग संभलो उठो
जाग जायो अब लुटते चमन के लिए।

नीलगगन के उड़ते पंछी

नीलगगन के उड़ते पंछी
मुझको अतिशय भाते हैं।
कहाँ-कहाँ से आते हैं ये
कहाँ-कहाँ उड़ जाते हैं।
सदा सैर को तत्पर रहते
लम्बी दौड़ लगते हैं।
श्रम से कभी न थकते दिखते
पंखों पर इठलाते हैं।

भीषण गर्मी के लिए हम जिम्मेदार

डा. चन्द्रभान

आज समूचा देश भीषण गर्मी की आग में जल रहा है। आदमी तो आदमी पशु-पक्षी भी इस तपन से व्याकुल हो रहे हैं। अस्पतालों में लू से पीड़ित लोगों की भीड़ है। प्रातःकाल से ही शहरों में कर्फ्यू का माहौल बन जाता है। घर और बाहर, हर जगह उसे गर्मी की तपन झेलनी पड़ रही है। कोई प्रकृति को कोस रहा है तो कोई सूरज को उसकी तीव्रता के लिए लानत भेज रहा है।
वस्तुस्थिति यह है कि इस भीषण गर्मी के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हमने ही प्रकृति के साथ छेड़छाड की है। अपने विलासी और आरामदायक जीवन के लिए प्राकृतिक संसाधनों को प्रचुर मात्रा में दोहन किया है। हम भूल गए कि हमारी निरंतर गलतियां हमारे लिए काल का कारण भी बन सकतीं हैं। अपने स्वार्थ के लिए हमने हरे-भरे वृक्षों को काटकर कंक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। नदी, तालाब और पोखरों को अपनी भूलिप्सा के लिए निगल लिया है। हम प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य से दूर भौतिकता की छांह में आश्रय ढूंढ रहे हैं।
मौसम में शीतलता के लिए पेड़ और तालाब बहुत जरूरी हैं। तालाबों से भूगर्भ स्तर बरकरार रहता है और उसकी नमी से आसपास पेड़ों को संजीवनी मिलती है। वृक्ष और तालाब, नदी अथवा पोखरों से तापमान में 3 सेंटीग्रेड की कमी की जा सकती है। लेकिन शहरीकरण व सड़कीकरण ने हमारे पेड़ों को निर्ममता से काट दिया है। मानव की जमीन की भूख इतनी बलवती हो गई है कि उसने तालाब और पोखरों को पाटकर अपने आशियाने बना लिए हैं। नदियों के पाट पर भी आवासीय कालोनियां आबाद हो रहीं हैं। जबकि तालाबा, नदी और पोखरों से पर्यावरण संतुलित रहता है। सूर्य की तपन को रोकने की उनमें क्षमता होती है। नदियां भी सूर्य के ताप को कम करतीं हैं। लेकिन नदियों के सूखने से उनकी बालू अधिक गर्मी दे रही है। इसके लिए हमने नदियों पर छोटे-छोटे बांध नहीं बनाये। जिससे पानी रुका रहे और वह सूर्य की तपन को रोक सके।
हमारे जीवन स्तर में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। मिट्टी के मकानों की जगह सीमेंट और लोहे के मकान बनने लगे। घरों से कच्चे आंगन गायब हो गये। पहले मिट्टी के मकान होते थे। उनकी दीवारें काफी चौड़ी होती थीं। अतः गर्मी का असर कम होता था। कंक्रीट तो सूरज की धूप में तपकर जलता तवा सरीखा बन जाता है। यह मकान सूर्य के ताप को कई गुना करके मनुष्य को भीषण तपन ही प्रदान कर रहे हैं।
वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड की प्रचुरता के कारण गर्मी बेतहाशा बढ़ रही है। जिस तरह पेटोल और डीजल वाहनों की संख्या बढ़ती जा रही है। उसी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड गैस का उत्सर्जन अधिक हो रहा है। यह गैस अंतरिक्ष में न जाकर उससे पहले एक परत बन जाती है। जिससे रात्रि में भी शीतलता नहीं होती। वैसे इस गैस से भी अधिक खतरनाक गेस है सीएफसी यानी क्लोरो-फ्लोरो कार्बन। यह गैस रेफ्रीजेरेटिंग सिस्टम के सभी उपकरणों में प्रयोग की जाती है। जिस तरह फ्रिज, वातानुकूलन सयंत्र और कोल्डस्टोरेज बढ़ रहे हैं। उससे गर्मी की तीव्रता कई गुना बढ़ गई है। सीएफएल गैस का प्रभाव कार्बन डाईआक्साइड गैस से 15800 गुना अधिक होता है। इन गैसों के प्रदूषित कण वायुमंडल में मंडराते रहते हैं जिससे गर्मी की भीषणता बढ़ रही है और रात्रि की शीतलता कम हो रही है। इन गैसों की भीषणता से सहज ही कल्पना की जा सकती है कि हम अपने विलासी जीवन की कितनी बड़ी कीमत अदा कर रहे हैं।
जीते-जी तो हम वायुमंडल को दूषित कर रहे हैं। मरने के बाद भी हम उसमें और अधिक वृद्धि कर जाते हैं। इस देश में रोज हजारों लोग मरते हैं। मुस्लिमों और ईसाइयों को छोड़ दे तो प्रत्येक शव के दाह संस्कार में लगभग 300 किलों लकड़ी जलायी जाती है। यह गीली लकड़ियां वायुमंडल को और अधिक विषैला बनाती हैं। हम अपने कथित धार्मिक संस्कारों के कारण विद्युत शवदाह गृहों को उपयोग नहीं करते। जब हमने ही अपनी और आने वाली पीढ़ियों के लिए विषैला वातावरण तैयार कर दिया है तो बेचारी प्रकृति को क्यों दोष दें ?
अगर हमें इस भीषण ताप से निजात पाना है तो अपने जीवन को संयमित करना होगा। अपने विलासी जीवन के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ बंद करनी होगी। तालाबों, नदियों व पोखरों पर अवैध कब्जों को हटाना होगा। अपने मकानों में कच्चा आंगन और छत पर अधिक से अधिक मिट्टी का इस्तैमाल करना होगा। कृषियोग्य भूमि को गैरकृषि कार्य के लिए इस्तेमाल बंद करना होगा। नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाने होंगे। वृक्षारोपण व उनके रखरखाब के लिए जनांदोलन छेड़ना होगा। अगर हम अब भी सावधान न हुए तो हमें गर्मी की ज्वाला में जलने से भगवान भी नहीं रोक पायेगा।

(लेखक प्रख्यात भूगोलविद् और आरबीएस कालेज के पूर्व विभागाध्यक्ष भूगोल रहे हैं)