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रविवार, 21 नवंबर 2010

दिशाहीनता के शिकार भारतवासी



‘‘भारत ने अपना लगभग सब कुछ खो दिया-उसने अपनी आत्मा तक खो दी है। लेकिन हमें फिर भी चिंतित नहीं होना चाहिए और आशा नहीं छोड़नी चाहिए। किसी कवि ने कहा है, तुमको अपना पौरुष फिर से प्राप्त करना है। हां, अवश्य ही फिर से मनुष्य बनना है। इस सुन्दर भारत देश में इस समय ऐसे लोग विचर रहे हैं जारे निर्जीव अतीत की प्रेतात्माओं के समान हैं। चारों ओर निराशा है, मौत है, आरामतलबी है, बीमारी है, अटूट दुख है-भारत के सम्पूर्ण क्षितिज पर दुर्भाग्य के बादल छा गये हैं। ....लेकिन इस सम्पूर्ण निराशा,ज ड़ता, निर्धनता और भुखमरी के होते हुए भी तथा एक ओर भूख से पीड़ित लोगों की चीख-पुकार को डुबोते हुए, और दूसरी ओर विलासिता के दलदल में फंसे लोगों की पाखंडपूर्ण खिलखिलाहट को अनसुनी करते हुए, हमें दुबारा भारत का राष्ट्रीय संगीत छेड़ना है और वह है..........उत्तिष्ठ, जाग्रत।...उठो, जागो।’’

लगता है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा 27 दिसम्बर 1915 को अपने मित्र हेमंत कुमार सरकार को लिखे पत्र के यह अंश आज के भारत सी सच्ची तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हों। लगभग एक शतक होने के बाद भी भारत माता की वेदना में कोई अंतर नहीं आया है। हमने आजादी भले ही प्राप्त कर ली लेकिन अपनी आत्मा को खो दिया है। हमें पता ही नहीं कि हम किसके लिए और क्यों जी रहे हैं। न हमारे कोई सपने हैं और न ही राष्ट्रीय सरोकारों से हमें कोई मतलब रह गया है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र खो चुका है। सिर्फ स्वार्थ-साधना ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनता जा रहा है। देश दो भागों में बंट चुका है। एक और वह भारत है, जहां संपन्नता है, खुशी है। मस्ती है। संवेदनशून्यता है। अहंकार है। वहीं दूसरी ओर असली भारत है। जहां गरीबी है। बेरोजगारी है। शोषण और अत्याचार है। निराशा और चीत्कार है। अफसोस इस बात का है कि किसी भी देश की असली ताकत उसकी युवा शक्ति होती है। लेकिन लगता है कि उनके भी सपने मरते जा रहे हैं। शिक्षाध्ययन के बाद उनका एकमात्र लक्ष्य रोजगार पाना ही रह गया है। रोजगार पाने के बाद वह भी इसी सड़ी-गली व्यवस्था का अंग हो जाता है। लेकिन इसके लिए युवाओं को दोेषी नहींे ठहराया जा सकता। हम आजादी के बाद अपने लोगों को सपने तो आसमान से ऊंचे दिखाते रहे लेकिन उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम रखा। यही कारण है कि युवाओं के सामने पहली प्राथमिकता अपने जीने के अस्तित्व की है। इसीलिए छात्र जीवन में कभी मार्क्स और कभी लोहिया दर्शन की बात करते नहीं अघाता युवा कालांतर में यथास्थितिवादी हो जाता है। ऐसे हालात में नहीं लगता कि हम देश को आगे ले जाने का साहस रखते हैं। केवल भौतिक विकास ही मनुष्य का वास्तविक विकास नहीं है। अगर लोगों में मानवीयता ही मर जाये तो ऐसे लोगों और पशुओं में अंतर ही कहां रह जाता है। यह देश का सामने बहुत बड़ा खतरा है। जिस आजादी के लिए कुर्बानियां दी गईं । उन शहीदों का नाम लेने वाला भी कोई नहीं है। सिर्फ स्वतंत्रता दिवस के दिन हम उन्हें रस्मी तौर पर याद कर लेते हैं। जब हमारे जीवन के आयाम ही बदल चुके हैं तो फिर कैसे जागेगा भारत। भूखा भारत कब तक इंतजार करता रहेगा विकास की भोर का। जीवन के हर क्षे़त्र में निराशा का वातावरण है। नैतिक मूल्यों की होली जलाई जा रही है। समाजसेवा का प्रतीक राजनीति अपने पथ से च्युत हो गई है। शिक्षा और चिकित्सा बाजारू हों गईं हैं। पहले लोग दूसरे के लिए जीने में विश्वास रखते थे लेकिन बदलते परिवेश मे वह दूसरों की जान की कीमत पर जी रहे हैं। आखिर हमारे इस स्वार्थपूर्ण आचरण का क्या परिणाम होगा। इस पर हमने विचार नहीं किया है। इसी प्रकार अगर लोगों में हताशा और निराशा बढ़ती गई तो निसंदेह शांति नहीं रहेगी। इसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ सकता है जो विलासिता में आकंठ डूबे हैं और जिनके कान में भूखों की चीत्कार नहीं पहुंच पा रही है। हमें अपने विकास मॉडल पर पुनर्विचार करना होगा। कुछ लोगों के विकास के लिए असंख्य लोगों को उजाड़ना बंद करना होगा। सामाजिक संरचना की अनदेखी के बिना विकास अधूरा है। क्या यह हमारे निजाम और कथित सभ्य समाज के गाल पर तमाचा नहीं है कि जहां मिड डे मील खाने से बच्चे इस लिए मना कर देते हैं कि उसे किसी दलित ने बनाया है। जाति और धर्म में जकड़ा भारत सुभाष के सपनों का कैसे भारत बनायेगा और कैसे अपने अस्तित्व के लिए हुंकारेगा....उठो, आगे बढ़ो।

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